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________________ ५०/ सत्य दर्शन नहीं टिकते हैं । देवता की ऐसी शक्ति है कि उसके पीछे इन्सानी दुनिया पागलों की तरह दौड़ी जा रही है, धर्म और अर्धम के विवेक को ताक में रखकर केवल इच्छित वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए दौड़-धूप मचा रही है, किन्तु ईश्वरीय सेवा के आगे तो उन देवताओं की भी शक्ति हीन और दीन है । एक दृष्टान्त लीजिएराजा दशार्णभद्र : जब भगवान् महावीर दशार्णपुर नगर के बाहर बाग में पधारे और उनके पधारने की खबर लगी, तो राजा दशार्णभद्र के हृदय में भक्ति और प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। प्रमोद और उल्लास से उसका मन जगमगा उठा। मगर इस भक्ति, प्रेम, प्रमोद और उल्लास के पीछे चुपचाप अहंकार भी मन में घुस आया । राजा सोचने लगा-"प्रभु पधारे हैं, मेरे आराध्य का आगमन हुआ है, जीवन को प्रकाश देने वाले ने पदार्पण किया है, मैं उनके चरणों में वन्दन करूँगा, तो भव-भव के बन्धन कटेंगे। मैं उन प्रभु के चरणों में जाऊँ, तो इस प्रकार जाऊँ कि इससे पहले कोई न गया हो, और न भविष्य में ही कोई जा सके।" मनुष्य का मन बड़ा ही विचित्र है। वह अनन्त-अनन्त काल को बाँधने लगता है। सोचता है-ऐसा करूँ कि जैसा किसी ने आज तक न किया हो। यों करूँ, त्यों करूँ। परन्तु हे छुद्र मानव ! तू क्या चीज है ? अरे तू एक साधारण मिट्टी का ढेला है। तेरे जीवन में जो भी भौतिक शक्तियाँ हैं, सम्पत्तियाँ हैं और तेरे जो भी प्रयत्न हैं , सब छोटे-से घेरे में बँधे हैं। फिर भी तू ऐसा करना चाहता है कि अनन्त भूतकाल और अनन्त भविष्यत् काल में उसकी तुलना न हो सके ? तू अपने क्षुद्र जीवन की क्षुद्र चेष्टाओं से अनन्त-अनन्त भूत और भविष्य को आक्रान्त करना चाहता है, उन्हें बाँध लेना चाहता है। राजा दशार्णभद्र के मन में ऐसी वृत्ति जाग उठी। वह अपनी भक्ति की मीठी और मधुर लहर को, जिसमें बहकर मनुष्य जीवन के प्रशस्त मार्ग को प्राप्त कर लेता है, स्थूल भौतिकता का रूप देने को तैयार हो गया। फिर क्या था? हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाएँ सजाई जाने लगीं। उसने इसी को दर्शन का रूप दे दिया। मनुष्य के मन को विकारमयी वृत्तियाँ घेर लेती हैं। उधर भगवान का समवसरण लगा है, सत्य का प्रकाश हो रहा है और ज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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