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________________ · सत्य दर्शन / १३ इसके विपरीत यदि सत्य निकल गया है और मनुष्य अपनी गलती को गलती के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं है तो गलती चाहे छोटी हो या मोटी, मिटने वाली नहीं है। वह अन्दर ही अन्दर अधिकाधिक गहरी बनती जाएगी और जीवन सड़ता जाएगा। इस विषय में हमारे यहाँ एक बड़ा सुन्दर प्रसंग आता है। पुराने आचार्यों ने इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण बात बतलाई है। सत्य और तस्कर : “एक बार भगवान् महावीर का समवसरण राजगृही में था। समवसरण सभा में बड़े-बड़े आत्म-त्यागी, वैरागी महापुरुष भी मौजूद थे और साधारण श्रेणी की जनता भी मौजूद थी। भगवान् धर्मोपदेश दे रहे थे। उनके मुख-चन्द्र से अमृत बरस रहा था। सभी लोग सतृष्ण भाव से प्रभु की वाणी को हृदयस्थ कर रहे थे। वहाँ एक चोर भी जा पहुँचा था। वह एक कोने में बैठा रहा और प्रभु के प्रवचन - पीयूष का पान करता रहा। यथा समय प्रवचन समाप्त हुआ और लोग अपने-अपने स्थान पर चले गए। तब भी वह चोर वहीं बैठा रहा । एक सन्त ने उससे पूछा - "कैसे बैठे हो अभी तक ?" चोर ने कहा- "मैने आज प्रथम बार महान् सन्त की वाणी सुनी है। " सन्त बोले- "सुनने के बाद कुछ ग्रहण भी किया है या नहीं ? जीवन भी बनाया है या नहीं ? रत्नों की वर्षा तो हुई, मगर तुम्हारे हाथ भी एकाध रत्न लगा या नहीं ? ? न लग सका तो वह वर्षा तुम्हारे क्या काम आई ? एक रत्न तो कम से कम ले ही लो।" चोर सोच में पड़ गया- मैं क्या लूँ ? तभी उसके अन्दर का सत्य - देवता स्पष्ट रूप में बोल उठा—''भगवान् ! आपकी वाणी अमृतमयी है। वह राक्षस को भी देवता बनाती है, किन्तु मैं उसे ग्रहण नहीं कर सकता। मैं चोर हूँ और चोरी करना मेरा धन्धा है। मेरे जीवन के साथ भगवान् की वाणी का मेल कहाँ ? चोरी छोड़ दूँ तो परिवार खाएगा क्या ? और चोरी नहीं छोड़ सकता तो पाया क्या ?" वह सन्त मनोविज्ञान के बड़े आचार्य थे। मनुष्य के मन को परखने की कला भी एक बड़ी कला है। मैं समझता हूँ, हीरों और जवाहरात को परखते-परखते जीवन गुजर जाता है, किन्तु मनुष्य को परखने की कला नहीं आती। इन्सान को परखने की कला के अभाव ने ही संसार में अव्यवस्था पैदा कर दी है। जवाहरात को परखना आता है या नहीं, यह कोई मूल्यवान् बात नहीं है। परन्तु मनुष्य को परखने वाला यदि . एक भी आदमी परिवार में है तो तब का जीवन पानतर बना सकता है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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