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सत्य दर्शन / १८५ डाल दिया है। निरन्तर बढ़ती जाती उत्तेजनाओं ने जीवन की सहज शान्ति को भंग कर दिया है । तुच्छ स्वार्थ एवं अहंकार मानवता की गरिमा के प्यासे बनकर रक्तपिपासु भेड़ियों की भाँति मैदान में निकल पड़े हैं। ऐसे नाजुक समय में साधु संस्था पर दुहरा उत्तरदायित्व आ पड़ा है। उसे अपने को भी सँभालना है, और समाज को भी। अतः उसे चाहिए, कि अपनी आंकि अनन्त चेतनसत्ता के जागरण के साथ वह जन-जागरण का दायित्व भी पूरा करे। वह वैयक्तिकता के क्षुद्र घेरे में आबद्ध होने वाली स्वार्थ लिप्त दुनियाँ को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की पवित्र घोषणा दे, उसे सच्ची
मानवता का पाठ पढ़ाए।
जीवन की क्षुद्र विकृतियों से ऊपर उठकर अन्तर में परमात्मतत्त्व की खोज और उसके अंग स्वरूप विश्व-मानवता का आत्मौपम्य दृष्टि से नवनिर्माण । संक्षेप में, यही है. मुनिदीक्षा का, साधुता का मंगल आदर्श ।
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जैन भवन, आगरा सितम्बर, १९७३
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