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________________ १७० / सत्य दर्शन देगा, तो फिर आप जैसे विद्वानों को कौन पूछेगा ? अगर तुम वेदों को ध्यान पूर्वक पढ़ोगे, तो स्वयं समझ जाओगे कि यहाँ 'अज' का अर्थ बकरा नहीं है।" पर्वत ने कहा - "तुम निर्णय कराने से डरते भी हो और पकड़ी बात को छोड़ना भी नहीं चाहते हो।" अब शास्त्र और सत्य किनारे पड़ गए और अहंकार में रस्साकशी होने लगी। जब अहंकार में रस्साकशी होने लगती है, तो समझना- समझाना कठिन हो जाता है। भूल हो जाना असंभव नहीं, अस्वाभाविक भी नहीं, बल्कि वह छद्मस्थ ही क्या, जिससे भूल न होती हो। किन्तु आराधक वही है, जो सत्य का प्रकाश मिलते ही उसे ग्रहण कर लेता है। सत्य-परायण पुरुष अपनी भूल को दबाने, छिपाने या उसका समर्थन करने का प्रयास नहीं करेगा। अपनी अप्रतिष्ठा के भय से या शान में बट्टा लग. जाने के डर से वह भूल को भूल समझ कर भी उसके प्रति आग्रहशील न होगा। उसमें इतना आत्म-बल होना चाहिए कि भूल हुई है तो समाज को कह सके कि अब तक जो किया है, वह गलत परम्परा थी और अब मैंने इस रूप में सत्य को प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार सत्य की भूमिका इतनी ऊँची है कि उसकी विद्यमानता में, जीवन में असत्य और अहंकार नहीं रहना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्य से मनुष्य का अहंकार इतना बड़ा है कि वह अपने-आप को ईश्वर से कम नहीं समझता । वह अपनी व्यक्तिगत मान्यता या धारणा को इतना महत्व दे देता है कि शास्त्र एक किनारे पड़ा रह जाता है और वह शास्त्र की गर्दन तोड़ता-मरोड़ता रहता है। भारत के असंख्य पंथों और सम्प्रदायों का इतिहास खोजने से पता चलेगा कि उनमें से अनेक व्यक्तिगत अहंकार के बीज से ही पैदा हुए हैं और फिर उन्होंने वृक्ष का रूप धारण कर लिया। हाँ, तो पर्वत और नारद के बीच जो मतभेद उत्पन्न हुआ था, उसने गरमा-गरम बहस का रूप धारण कर लिया। लम्बी-चौड़ी चर्चा चली, पर निर्णय कुछ नहीं हुआ। जहाँ सत्य की जिज्ञासा नहीं और सत्य को स्वीकार कर लेने की विनम्र एवं सरल भावना नहीं, वहाँ निर्णय होने की कोई सम्भावना भी नहीं। आखिर, पर्वत ने कहा-“हमारे मतभेद का निर्णय तो तीसरे व्यक्ति से हो सकता नारद ने स्वीकार करते हुए कहा-"ठीक है, तीसरे से निर्णय कराना ही चाहिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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