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________________ १६८ / सत्य दर्शन तो, अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो अपने मस्तिष्क में से इस दुर्विचार को दूर कर दीजिए कि सारा संसार असत्य के दल-दल में फँसा है, तो मैं ही उबरने का प्रयत्न क्यों करूँ ? आपने असत्य को अपने जीवन का अभिशाप समझा है, तो दूसरे कुछ भी करें, आप असत्य का त्याग करके सत्य की शरण लें। ऐसा करने से आपका कल्याण तो होगा ही, दूसरों का भी कल्याण होगा । सत्यमय जीवन बनाने के लिए असत्य का त्याग करना आवश्यक है और असत्य का त्याग करने के लिए विविध रूपों को पहचान लेना आवश्यक है। असत्य ने आज विराट रूप धारण किया है और वह मानवता को निगल जाने का प्रयत्न कर रहा है। यह नित्य नए रूप ग्रहण करता है। छल-कपट, रिश्वत आदि रूप तो उसके पुराने हैं ही. इस युग में उसने कूटनीति, चोर-बाजारी आदि के नवीन रूप धारण किए हैं। असत्य से बचने के लिए इन सब से बचना होगा । कोई आदमी अपने जीवन में असत्य भाषण करता है, तो यह भी बुरी चीज हैं, पर इससे भी बुरी और भयंकर चीज है, उसे धर्म और संस्कृति का रूप दे देना । असत्य 'जब धर्म का या संस्कृति का रूप ग्रहण कर लेता है, तो उसे व्यापक समर्थन मिल जाता है और वह सत्य रूप में व्यवहृत होने लगता है। जो लोग किसी स्वार्थ, अहंकार या विद्वेष के वशवर्ती होकर असत्य को सत्य रूप देते हैं, वे बड़ी ही भयंकर भूल करते हैं । वह भूल उनके जीवन के साथ समाप्त नहीं हो जाती, वरन् सदियों तक चलती रहती है और जनता के जीवन को बर्बाद करती रहती है । सत्यवादी राजा वसु : जैन इतिहास में यज्ञ कैसे चालू हुआ, यह बतलाने के लिए एक घटना का उल्लेख मिलता है। पुराने युग में एक वसु राजा थे। वे सत्य के बड़े उपासक थे । उन्होंने राज-सिंहासन पर बैठ कर राज्य को ऊँचा बनाने का प्रयत्न किया । वे दूध का दूध और पानी का पानी किया करते थे। कहते हैं, सत्य के प्रभाव से उनका सिंहासन पृथ्वी के ऊपर अधर हो गया था । उसी युग में दो बड़े विद्वान थे और उन्होंने एक ही आचार्य से शिक्षा पाई थी । एक का नाम पर्वत और दूसरे का नाम नारद था । पर्वत को शास्त्रों का अभ्यास तो ज्यादा था, पर वह उनके अनुसार चलता नहीं था। संसार में उसकी प्रख्याति बढ़ रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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