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________________ १६४ / सत्य दर्शन किन्तु दुर्भाग्य से आज के जीवन में चारों ओर असत्य का साम्राज्य फैल रहा है। दो आदमी आपस में मिलते हैं और घुट-घुटकर बातें करते हैं। बातें करके अलग होते हैं, तो एक-दूसरे के प्रति अविश्वस्त हैं। किसी को किसी पर विश्वास नहीं है। कारण यही कि दोनों के मन में सचाई नहीं है । पारिवारिक जीवन में और सामाजिक जीवन में भी अविश्वास की लहरें चल रही हैं। घर में रहते हैं, तब भी अन्तःकरण में असत्य छाया रहता है, दुकान पर जाते हैं, मित्र मिलते हैं या शत्रु मिलते हैं, तब भी असत्य छाया रहता है। असत्य ने एक विकट समस्या खड़ी कर दी है। मानव-जीवन के प्रत्येक अंग में असत्य का ही बोल-बाला दिखाई देता है। सर्वत्र असत्य का धुँधलापन फैल रहा है। अन्य पापों को तो लोग पाप समझते हैं, परन्तु इस महापाप की पाप में जैसे गिनती ही नहीं है। असत्य भाषण और आचरण करने में मानो बुराई ही नहीं है। जब कोई बुराई बहुत व्यापक रूप धारण करके जनता के जीवन में प्रवेश कर जाती है और वह आम चीज बन जाती है, तो लोग उसे बुराई समझना ही छोड़ देते हैं। उन्हें लगता है कि यह तो एक साधारण-सी चीज है, जो सभी में विद्यमान है। अर्थात् उनकी निगाह में बुराई वह है, जो गिने-चुने थोड़े आदमियों में ही होती है। जब ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है तो उस बुराई का प्रतिकार करना बड़ा कठिन हो जाता है । असत्य के सम्बन्ध में आज यही स्थिति है जन-जन के मन में उसने प्रवेश पा लिया है और वह इतनी व्यापक वस्तु बन गई है कि असत्य का आचरण करके कोई लज्जित नहीं होना चाहता। कई बार तो लोग असत्य का आचरण करके गौरव का अनुभव करते हैं और दूसरों के सामने अपने असत्याचार का बखान करते हैं, मानो उन्होंने कोई बड़ी बहादुरी या बुद्धिमत्ता का काम किया है। इस दशा में, जीवन की रग-रग में घुसे हुए इस महापाप को निकालने का यत्न करें भी, तो कैसे करें ? राजकीय कानून अन्य अपराधों के प्रति जितना सख्त है, क्या असत्य के प्रति भी उतना ही सख्त है ? ऐसा जान तो नहीं पड़ता । महान् व्यक्ति का अनुसरण : साधारण कोटि की जनता में ही असत्य का साम्राज्य हो, तो भी बात नहीं है। संसार में प्रथम कोटि के समझे जाने वाले लोगों में भी असत्य घर किए हुए है। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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