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________________ सत्य दर्शन / १५५ कई बार साधु भी ऐसे वहम में पड़ जाते हैं । एक बार मैंने विहार किया और भाइयों को पता लगा तो उन्होंने घेर लिया और कहा-नहीं जाने देंगे । मैंने कहा-भाइयो, मुझे आगे कुछ आवश्यक कार्य करना है, अतः मैं रुक नहीं सकता। मैं जाऊँगा। उस समय किसी के मुँह से निकल गया महाराज, ठीक नहीं होने वाला है। यह सुनकर हमारे एक साथी साधु को आवेश आ गया। उन्होंने कहा-तुम तो अपशकुन करते हो, हम रवाना हो रहे हैं, और तुम्हारे मुँह से अपशकुन की बोली निकलती है। तब मैंने कहा-हाँ, ये भगवान हो गए हैं और देवी-देवता हो गए हैं और अब भविष्यवाणी हो चुकी है कि ठीक नहीं होने वाला है ! इस सब का मतलब यह है कि तुम्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं है। आखिर, ऐसा कहने में क्या हर्ज हो गया ? कोई आग्रह की भाषा बोलता है, तो हानि क्या है ? मैं दिल्ली से ब्यावर को रवाना हुआ। मैं मुहूर्त-वुहूर्त नहीं देखता । इस वहम को मैंने दूर कर दिया है। तो जिस दिन मैं रवाना हुआ, उस दिन दिशा-शूल था और मुझे मालूम नहीं था। जब श्रावक आए, तो उनमें से एक ने कहा-'आपने मुहूर्त नहीं देखा है। मार्ग में बड़ी गड़बड़ी होगी-अच्छा न होगा।' ___ मैंने उन्हें कहा-'यदि कर्मों में दिशा-शूल है, तो कोई रोकने वाला नहीं है और नहीं है, तो कोई दुःख देने वाला नहीं है। मैं तो कर्म-सिद्धान्त पर अटल आस्था रखता ___ मुझ पर उनकी बात का कुछ भी असर न हुआ । मैं रवाना हो गया और ठीक-ठिकाने पहुंच गया। यात्रा में और दूसरे कामों में कहीं न कहीं, कुछ न कुछ गड़बड़ हो ही सकती है। यह तो जीवन की गड़बड़ है। दिशाशूल के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ लेना वहम का ही परिणाम है। मार्ग में काँटा चुभ गया तो दिशा-शूल था, कहीं भोजन न मिला तो दिशाशूल था और सत्कार-सम्मान नहीं मिला, तो भी दिशाशूल था। इस प्रकार कार्य-कारण भाव की कल्पना कर लेना वहम के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जिसके मन में ऐसे-ऐसे भ्रम और वहम हैं, समझना चाहिए कि उन्होंने कर्म-फिलॉसफी का महत्त्व नहीं समझा है । एक आचार्य ने कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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