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________________ १५० / सत्य दर्शन द्वन्द्व हों, आवेश नहीं आना चाहिए। साधक का बहिरंग और अन्तरंग एकाकार हो जाना चाहिए । हरेक जगह वह जीवन को समभाव में स्थिर रख सकता हो, तो समझना चाहिए कि उसे जीवन का मिठास प्राप्त हो रहा है। साथी होंगे, सम्प्रदाय के लोग होंगे, पड़ौसी होंगे और जीवन के द्वन्द्व भी चलते ही रहेंगे। क्या हम इन सब को फैंक दें ? फैंकने का विधान तो है, किन्तु जल्दी नहीं फ़्रैंके जा सकते। अतएव इन सब को ढोना है और समभाव के साथ ढोना है। इन सब के निमित्त से समभाव की लहर भीतर उत्पन्न करनी है । पति-पत्नी : हमारे यहाँ एक वैष्णव सन्त की कहानी है। एक सन्त और उनकी पत्नी दोनों दो राहों पर चल रहे थे। पत्नी अत्यन्त क्रोधशीला थी और बात-बात में लड़ने लगती थी । पति बहुत शान्त प्रकृति के थे। उस सन्त को लोग भक्त तुकाराम के नाम से जानते हैं । उस घर की बातें बाहर फैली तो लोग तुकाराम से पूछते- क्या हो रहा है आपके घर में ? वे उत्तर देते - 'प्रभु का वरदान मिला है, और प्रभु की अपार कृपा हो गई है कि हमारे घर में अनमेल आदमी इकट्ठे हो गए हैं। खुद किधर चलते हैं, पत्नी किधर चलती है और बच्चे किधर ही जाते हैं ।' लोग इस उत्तर से चकित होकर पूछते-इसे आप प्रभु की अपार अनुकम्पा क्यों समझते हैं ? तब वे कहते - 'घर की इन परिस्थितियों में मुझे अपने को परखने का और जाँचने का अच्छा मौका मिलता है। बाहर में कोई अनमेल आदमी मिलते, तो साल में दो-चार बार ही मिलते और दो चार बार ही परीक्षा हो पाती, परन्तु जब घर में ही यह हालत है, तो कदम-कदम पर परीक्षा देनी पड़ती है और सोचना पड़ता है मैं कहाँ हूँ और मैंने जीवन में कोई तैयारी की है या नहीं ।' एक बार तुकाराम कहीं बाहर गए थे। किसी किसान ने उन्हें एक गन्ना दे दिया। बाल-बच्चों के घर में एक गन्ना काफी नहीं था। जरूरत ज्यादा की थी। अतएव जब वे एक गन्ना लेकर घर पहुँचे और अपनी पत्नी से बोले- 'लो, यह गन्ना लाया हूँ ।' उनकी पत्नी को क्रोध आ गया। वह बोली- 'बड़ी कमाई करके लाए हो। मानों हीरों का हार दे रहे हो। सुबह से निकले और दोपहर पूरी कर दी। और कुछ तो मिला नहीं, एक गन्ना मिला है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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