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सत्य दर्शन / १३९
कोई भी मनुष्य या देवता किसी के भाग्य को नहीं पलट सकता। जैनधर्म तो इन्द्र को भी चुनौती देता रहा है कि जो होने वाला है, तो तू कुछ कर सकेगा और जो होने नहीं होने वाला है, तो तू भी कुछ नहीं कर सकता। मगर इन्द्र और यहाँ तक कि ईश्वर को भी दी हुई चुनौतियाँ आज मिट्टी में मिल रही हैं और जैनधर्म के अनुयायी भी आज आतंकित और भयभीत होकर पत्थरों से सिर टकराते फिर रहे हैं ।
मैं शहर के बाहर गया, तो एक जगह बहुत-से लोगों को देखा। वे पीर जी के स्थान पर नमस्कार कर रहे थे और दीवार को छू-छूकर आँखों से लगा रहे थे । महीनों तक मैंने इस दृश्य को देखा। यह देखकर मैं सोचता हूँ- आखिर यह लोग किसको नमस्कार करते हैं ? जिसे नमस्कार करते हैं, उसमें क्या विशेषता थी ? किसी को कुछ पता नहीं है, परन्तु भेड़-चाल से चलते हुए माथा टेकते जा रहे हैं । टूटी की बूंटी नाहिं :
एक बार मैं मथुरा से दिल्ली जा रहा था। देखा, हजारों देहाती सड़क पर दबादब चले जा रहे हैं। पूछने पर पता चला सती का मेला है। तब मैंने उनसे पूछा- 'तुम हजारों की संख्या में चल पड़े हो, तुम्हें यह भी मालूम है कि सती का क्या इतिहास है ?' पर किसी को कुछ भी पता नहीं। कोई नहीं जानता कि कोई सती हुई भी है या नहीं ? इस तरह न कोई भाव है, न चिन्तन है, न विचार है। फिर भी चले जा रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चों को गोदी में लादे आगे ही आगे बढ़ते जा रहे हैं। रास्ते में प्यासे मर रहे हैं, तो भी परवाह नहीं । देवता के पीछे भागे जाते हैं, देवता का भजन भी गाते जा रहे हैं कि-'टूटी की तो बूंटी नाहीं' यह सुनकर मैंने सोचा- भारत का दर्शन तो इनके दिमाग में से निकल गया है, पर आवाज वही निकल रही है कि टूटी की बूंटी नहीं है। हजारों आदमी जा रहे हैं, आखिर किस उद्देश्य को लेकर ? गा रहे हैं - 'टूटी की बूंटी नाहीं' और टूटी की बूंटी तलाश करने जा रहे । सचमुच, आज भारत की विचार - शक्ति कितनी कुण्ठित हो गई है ?
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इन देवी-देवताओं के पीछे कहीं-कहीं तो बड़ा अनर्थ हो रहा है। विजयादशमी के दिन, देवी के मन्दिरों की स्थिति देखकर किस का दिल नहीं हिल जाता ? जहाँ-जहाँ काली के मन्दिर हैं, वहाँ उस दिन हजारों-लाखों बकरे और भैंसे अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं और मन्दिर तथा आसपास की जमीन रक्त-रंजित हो जाती हे। ऐसा करने से कोई भी उद्देश्य सिद्ध होने वाला नहीं है। केवल देवी को खुश करने
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