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________________ १३२/ सत्य दर्शन आपको विदित है कि भारतवर्ष में हजारों देवी-देवता हैं । वे कहीं नदी के रूप में, कहीं पहाड़ों के रूप में, कहीं वृक्षों के रूप में, और कहीं-कहीं ईंटों एवं पत्थर के रूप में विराजमान हैं । विचार करने पर ऐसा जान पड़ता है, मानों भारत के अन्ध-विश्वासियों ने प्रप्येक ईंट-पत्थर को देवता बना लिया है, हरेक नदी-नाले को देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर लिया है और प्रत्येक पाषाण और पहाड़ को देवता के रूप में कल्पित कर लिया है। इन तमाम देवताओं के ऊपर भारत की कितनी शक्ति व्यय हो रही है ? देश की जनशक्ति का व्यय हो रहा है, धन और वैभव का व्यय हो रहा है और बहुमूल्य समय का भी व्यय हो रहा है। हजारों लाखों आदमी इन देवी-देवाताओं के पीछे इधर से उधर भटक रहे हैं। उनकी मनौती और आराधना के पीछे नाना प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं। कुछ लोग भयभीत होकर उनकी सेवा में जाते हैं, तो बहुत से लोग लोभ से प्रेरित होकर उनके आगे मत्था टेकते हैं । हजारों आदमी इस आशंका से कि कहीं मैं, मेरे परिवार के बच्चे, मेरी पत्नी, माता, पिता या अन्य सगे-सम्बन्धी बीमार न हो जाएँ, किसी संकट में न पड़ जाएँ. इन देवताओं की मनौती मनाते हैं। वीतरागता और देव पूजा : __ संयोगवश, कभी कोई दुर्घटना हो गई, तो बहुत से लोग उसे दैवी प्रकोप का ही परिणाम समझ लेते हैं और फिर उसकी शान्ति के लिए देवी-देवताओं की पूजा और मनौती की जाती है। इसी प्रकार धन के लालच के वशीभूत होकर बहुत से लोग देवता की शरण लेते हैं। कोई-कोई सन्तान पाने की कामना से देवी की आराधना करते हैं। जैसे वे समझते हैं कि पेड़ या पाषण के देवता के पास धन का अक्षय भंडार भरा पड़ा है और वह अपनी उपासना से प्रसन्न होकर उसके लिए अपने भंडार का द्वार खोल देगा। या देवता के पास सन्तान दे देने की शक्ति मौजूद है और मनौती मनाने से वह उसे प्राप्त हो जाएगी। इस प्रकार धन और सन्तान की अभिलाषा से, बीमारी आदि अनर्थों से बचने के लिए, सुख-सौभाग्य पाने के लिए, यहाँ तक कि अपने विरोधी का विनाश करने के लिए भी लोग देवी-देवताओं के गुलाम बने रहते हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि लोग स्वयं ही देवता का निर्माण कर लेते हैं और फिर स्वयं ही उसकी पूजा करने को तैयार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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