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________________ सत्य दर्शन/३ हिंस्यन्त तिलनाल्या, तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत्। बहवो जीवा यौनौ, हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ -पुरुषार्थ., १०२ अर्थात्-"जैसे तिलों से भरी नाली में तपाया हुआ लोहा डालने से तिल जल-भुन जाते हैं, उसी प्रकार मैथुन-क्रिया से जीवों का विघात होता है।" इसी प्रकार हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरंगेषु । बहिरंगेषु तु नियतं, प्रयातु मूच्छैव हिंसात्वम् ॥ -पुरुषार्थ., ११९ अर्थात्-'मिथ्यात्व, राग, द्वेष आदि अन्तरंग परिग्रह तो हिंसा के ही पर्यायवाची हैं, अतएव उनमें हिंसा स्वतः सिद्ध है। रहा बाह्य परिग्रह, सो उसके प्रति जो मूर्छा का भाव विद्यमान रहता है, वह भी निश्चित रूप से हिंसा ही है।" इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि असत्य, स्तेय आदि हिंसा-रूप होने के कारण ही पाप हैं । इस प्रकार साधना के लिए उद्यत हुए साधक को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में और विभिन्न स्वरूपों में विद्यमान हिंसा से बचने का प्रयत्न करना होता है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा की आराधना के लिए सत्य आदि की आराधना भी अनिवार्य है। अतएव अहिंसा की विवेचना के पश्चात सत्य आदि की विवेचना स्वतः प्राप्त होती है। अहिंसा आदि का जो क्रम प्राचीन शास्त्रकारों ने निर्धारित किया है, उसके अनुसार अहिंसा के पश्चात् सत्य का नम्बर आता है। इसका आशय है-"अहिंसा के द्वारा सत्य के द्वार पर पहुँचना ।" जो सत्य की उपासना करना चाहते हैं, उन्हें अपने हृदय में अहिंसा को स्थान देना ही चाहिए। जब तक मनुष्य अहिंसा की भावना से मन में गद्गद नहीं हो जाता है, दूसरे के दुःखों को अपने हृदय में स्थान नहीं देता है, जो स्वयं दूसरों को दुःख देता है, जो पर-पीड़ा को स्व-पीड़ा की भाँति समझ कर उससे विकल नहीं हो उठता है, वह अहिंसाव्रत का व्रती कैसे हो सकता है ? मानना चाहिए कि उसका जीवन अहिंसामय नहीं बन पाया है, और जिसने अहिंसा को ग्रहण नहीं किया है, वह सत्य को भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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