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११८ / सत्य दर्शन उसे कंट्रोल के भाव से वह चीज देते हैं। इस भय के कारण कि कहीं 'ब्लेक-मार्केटिंग' करते हुए पकड़ में न आ जाएँ और कहीं जेलखाने की हवा न खानी पड़े। इसका मतलब यह हुआ कि पाप से बचने की बुद्धि नहीं जागी है, सिर्फ पाप के फल से बचने की बुद्धि जागी है। इसी कारण जब व्यापारी को ब्लेक-मार्केटिंग के फल का जुर्माना, सजा या कारागार का भय नहीं होता, तब वह धड़ल्ले के साथ ब्लेक-मार्केटिंग करता है, क्योंकि उसे पाप से नहीं डरना है, केवल उसके फल से बचना है।
यह आत्मोत्थान का मार्ग नहीं है, यह उपासना की पद्धति भी नहीं है। इसमें सत्य को कोई स्थान नहीं है। जो सत्य की उपासना करने वाले हैं, उन्हें अपने अन्तर में सहज-भाव जगाना होगा और पाप को पाप के कारण ही छोड़ना होगा। हिंसा स्वयं हेय है, इसलिए उसे त्यागना चाहिए। जीवन की बुराई अपने-आप में ही बुराई है और उसको कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता। वह बुराई कदाचित स्वर्गदेने वाली हो, तो भी त्याज्य ही है। हजारों आदमी विश्वास दिलाएँ कि हिंसा और असत्य स्वर्ग देने वाले हैं और तुमको यह स्वर्ग में पहुँचा देंगे, तब भी जैनधर्म उन्हें त्याज्य ही कहता है।
यज्ञ की हिंसा को उपादेय रूप क्यों मिला ? क्या आपने कभी सोचा है कि धर्मात्मा कहलाने वाले लोग भी क्यों निःसंकोच होकर यज्ञ में पशुओं की बलि देने को तैयार हो जाते थे? विचार करने पर विदित होगा कि उन्होंने हिंसा को हिंसा के रूप में ही हेय नहीं समझा था। उनकी दृष्टि कर्तव्य की ओर नहीं, फल की ओर थी। जब उन्हें मालूम हुआ कि यज्ञ में हिंसा करके भी हम हिंसा के फल से बचे रहेंगे और बल्कि स्वर्ग पाएँगे, तो लोग बेधड़क यज्ञ में हिंसा करने लगे।
इस प्रकार पाप से बचने के बदले, पाप के फल से बचने की वृत्ति ने अनेक अनर्थ उत्पन्न किए हैं। विश्व का इतिहास ऐसे अनर्थों से रंगा हुआ है। इसीलिए मैं कहता हूँ और बार-बार चेतावनी देता हूँ कि जब किसी कर्त्तव्य के विषय में विचार करो, तो उसके गुण-अवगुण पर ही विचार करो। उसकी बुराई को सोचो। अपनी दृष्टि को कर्तव्य-प्रधान बनाओ, फल-प्रधान न बनाओ । पाप से बचने वाला उसके फल से अवश्य बच जाएगा और स्वतः ही बच जाएगा, मगर पाप के फल से बचने की कोशिश करने वाले के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। इस प्रकार सत्य की उपासना और आराधना ही साधना का मूल स्रोत है और यही जीवन-सुधार का दृष्टिकोण है।
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