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________________ सत्य दर्शन / १०१ निस्संदेह, मनुष्य- - जीवन बड़ा ही दुर्लभ है । इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य का शरीर लिए हुए तो लाखों की संख्या सामने है, सब अपने को मनुष्य समझ रहे हैं मगर केवल मनुष्य तन पा लेना ही मनुष्य-जीवन पा लेना नहीं है वास्तविक मनुष्यता पा लेने पर ही कोई मनुष्य कहला सकता है।. यह जीवन की कला इतनी महत्त्वपूर्ण है कि सारा का सारा जीवन ही उसकी प्राप्ति में लग जाता है। क्षुद्र जीवन ज्यों-ज्यों विशाल और विराट बनता जाता है और उसमें सत्य, अहिंसा और दया का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों सोया हुआ मनुष्य का भाव जागृत होता जाता है। अतएव शास्त्रीय शब्दों में कहा जा सकता है कि मनुष्य का भाव आना ही मनुष्य होना कहलाता है । मनुष्य जीवन में प्रेरणा उत्पन्न करने वाली चार बातें भगवान् महावीर ने बतलाई हैं । उनमें 'प्रकृतिभद्रता' सर्वप्रथम आती है। मनुष्य को अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि तू प्रकृति से भद्र है अथवा नहीं ? तेरे मन में या जीवन में कोई अभद्रता की दीवारें तो नहीं हैं ? उसमें तू अपने परिवार को और समाज को स्थान देता है या नहीं ? आस-पास के लोगों में समरसता लेकर चलता है या नहीं ? ऐसा तो नहीं है कि तू अकेला होता है, तो कुछ और सोचता है, परिवार में रहता है तो कुछ और ही सोचता है और समाज में जाकर और ही कुछ सोचने लगता है ? इस प्रकार अपने अन्तर को तू ने बहुरूपिया तो नहीं बना रखा है ? स्मरण रखो, जहाँ जीवन में एकरूपता नहीं है, वहाँ जीवन का विकास भी नहीं है। मैं समझता हूँ, अगर आप गृहस्थ हैं, तब भी आपको इस कला की बहुत बड़ी आवश्यकता है, और यदि साधु बने हैं, तो उससे भी बड़ी आवश्यकता है। जिसे छोटा-सा परिवार मिला है, उसे भी आवश्यकता है और जो ऊँचा अधिकारी बना है और जिसके कन्धों पर समाज एवं देश का उत्तरदायित्व आ पड़ा है, उसको भी इस कला की आवश्यकता है। जीवन में एक ऐसा सहज भाव उत्पन्न हो जाना चाहिए कि मनुष्य जहाँ कहीं भी रहे, किसी भी स्थिति में हो, एकरूप होकर रहे। यही एकरूपता, भद्रता या सरलता कहलाती है और यह जीवन के हर पहलू में रहनी चाहिए। सरलता की उत्तम कसौटी यही है कि मनुष्य सुनसान जंगल में जिस भाव से अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर रहा है, उसी भाव से वह नगर में भी करे और जिस भाव से | दूसरों के सामने कर रहा है, उसी भाव से एकान्त में भी करे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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