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________________ | ७ सत्य-धर्म का मूल : मानवता सृष्टि की विराटता की ओर अपनी दृष्टि दौड़ाइए । जड़-जगत् की विशाल पदार्थ-राशि को थोड़ी देर के लिए भूल जाइए और केवल प्राणी-सृष्टि पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कीजिए। पता चलेगा कि असंख्य प्रकार के प्राणी इस विश्व के उदर में अपना-अपना जीवन-पालन कर रहे हैं । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, अमनस्क पंचेन्द्रिय, समनस्क पंचेन्द्रिय, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े आदि की गणना करना ही संभव नहीं है ? वर्षा का मौसम आता है, तो घास-फूस से ही धरातल व्याप्त नहीं हो जाता, अन्य अगणित सम्मूर्छिम जीवों से भी पृथ्वी परिपूर्ण हो जाती है। कोटि-कोटि क्षुद्र कीट इस धरती की पीठ पर बिलबिलाने लगते हैं, रेंगने लगते हैं और हमें विस्मय में डाल देते हैं। फिर इसी धरातल की सीमा के साथ तो सृष्टि की सीमा समाप्त नहीं हो जाती। इससे ऊपर भी सृष्टि है और नीचे भी सृष्टि है, जहाँ भाग्यवान् और अभागे असीम प्राणी निवास करते हैं, जिसे हम स्वर्ग और नरक कहते हैं । इस अत्यन्त विशाल जीव-जगत् में मनुष्य का क्या स्थान है ? कहा जा सकता है कि सागर में एक सलिल-कण का जो स्थान है, वही जीव-जगत में मनुष्य का स्थान संसार चक्र में परिभ्रमण : प्राचीन काल के आचार्यों और महापुरुषों ने मानव-जीवन की अमित महिमा गाई है । अनन्त-अनन्त काल तक विभिन्न जीव-योनियों में भटकने के अनन्तर, संसार-चक्र में परिभ्रमण करने के पश्चात् अत्यन्त प्रबल पुण्य के उदय से मनुष्य-जीवन की प्राप्ति होती है। अगणित जीव-योनियों में जन्म लेने से बचकर मनुष्य-योनि पा लेना, वास्तव में सरल नहीं है। मानव-भव की दुर्लभता बतलाने के लिए हमारे यहाँ बहुत सुन्दर ढंग से दश दृष्टान्तों की योजना की गई है। उन सब को बतलाने का यहाँ अवसर नहीं है। केवल एक दृष्टान्त लीजिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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