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________________ पुरुष की शक्ति : ४६ रहा था। मृत्यु से भयभीत मनुष्य ही उसने अभी तक देखे थे, पर आज वह अपने द्वार पर खड़े योगी को विस्मय भरी दृष्टि से देख रहा था। निर्णय नहीं कर सका, यह क्या है ? यह कौन है ? यह क्यों हो रहा है ? . ___अपना पूरा बल लगाकर सर्पराज ने एक भयंकर फुपकार मारी। किन्तु योगी अब भी अचल, अटल खड़ा था। फिर पूरी शक्ति लगाकर प्रभू-चरणों में तीव्र दंश मारा। योगी फिर भी स्थिर. अडिग ही खड़ा रहा । विष हार चुका था, अमृत मुस्करा रहा था। क्रोध हारा, क्षमा जीत गई !! विषधर पड़ा-पड़ा प्रभु की ओर देख रहा है। नहीं समझा वह-यह क्या और क्यों हो रहा है ? भगवान् ने शान्त स्वर में यों कहा : __'संबुझह, किं न बुज्झह ।" चण्ड जरा संभल ! देख अपने में अपने को । तू कौन था, क्या हो गया ? ____ मधुर वाणी का अमृत-पान करके वह मतवाला और मस्त हो गया। अपने आप में वह डूबने लगा। डूबता रहा ! डूबता रहा !! डूबकर ले आया, वह अपने अन्तर जीवन-सागर में से। ___ "मैं भिक्षु था। शिष्य पर क्रोध किया। क्रोध कितना भयंकर तापकर, और दारुण भाव है।" जाति स्मरण ज्ञान की ज्योति से सारा अतीत प्रकाश से जगमगा उठा ! वह सोच रहा था : “मैं प्रतिबोध को पाया गया हूँ; भंते ! यह आपकी अपार कृपा को पामर कैसे भूलेगा? आज से जीवन के अन्त तक । क्षमा मेरा धर्म, शान्ति मेरा धर्म, अभय मेरा धर्म ! कुछ भी हो, मैं क्षमा रखूगा। प्रतिशोध, क्षोभ और रोष बहुत किया-बहुत किया-अब न करूंगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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