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________________ २८ : पीयूष घट करके अब काम भोगों से निर्लिप्त होने की भावना रखता है । भंते ! मैं आपको यह शिष्य - भिक्षा दे रही हूँ । स्वीकार कर मुझे कृतार्थ कीजिए, मेरी प्रार्थना अंगीकार कीजिए ।" → मेघकुमार के प्रव्रजित होते ही माता धारिणी ने गद्गद् स्वर में कहा : "तात, तुम अब आगार से अणगार बने हो । संयमसाधना में प्रयत्न करना, पराक्रम करना, जरा भी प्रमाद मत करना, इन्द्रियों का निग्रह करना, मनोवृतियों का निरोध करना, राग और द्वेष पर विजय पाना और शुक्ल ध्यान के बल से सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बनना । मेरी तरह किसी अन्य मातृ-हृदय के रोदन में निमित्त मत बनना, वत्स ! मेघकुमार अब राजकुमार नहीं, एक आत्म-साधक भिक्षु बन गया । अन्य भिक्षओं की तरह वह भी भगवान् के आदेशों का परिपालन करने को तत्पर हो गया था । प्रव्रजा दिवस की पहली रात थी । मेघकुमार की शैया लघु होने के कारण सब भिक्षुओं के अन्त में द्वार के पास थी । आतेजाते भिक्षुओं के पैरों की रज और ठोकरों से मेघकुमार सुख से सो नहीं सका । वह अधीर हो गया। उसके मन में विचार उठा : "ये भिक्षु कितने स्वार्थी हैं ? जब मैं राजकुमार था, तब मेरा कितना आदर करते थे और अब कितना अनादर करते हैं ! ठोकरें मारते फिरते हैं । मुझ से इस प्रकार का संयम नहीं पल सकेगा । भगवान् का यह संयम मार्ग भगवान् को हो मुबारक हो।" वह राजभवन का आदर-सत्कार मेघकुमार की कल्पना में बिजली बनकर कौंध गया। रात जैसे-तैसे करवट बदलते कट गयी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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