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तिष्यगुप्त को भ्रान्ति
विज्ञान ही जान सकता है । सिद्धान्त के विषय में एकान्त
सत्य अनन्त है । उसे अनन्त किसी भी वस्तु और किसी भी विचार मिथ्या होता है ।
तिष्यगुप्त एक मेधावी तथा प्रतिभावान् श्रमण था । उसके पास तीव्र तर्क शक्ति भी थी । परन्तु जब तर्क श्रद्धा से भटक जाता है, तो हेय हो जाता है ।
तिष्यगुप्त अपने गुरू से आत्म-प्रवाद पूर्व पढ़ रहा था । उसमें जीव का विस्तृत वर्णन है । शिष्य ने गुरू से तर्क किया
"गुरुदेव ! क्या जीव के एक प्रदेश को, दो प्रदेशों को, तीन आदि प्रदेशों को भी जीव कह सकते हैं ?”
गुरु ने कहा- "हाँ, कह सकते हैं ।" शिष्य ने अपनी बात को मजबूत करते हुए कहा - "नहीं, गुरु देव ! यह सिद्धान्त सत्य नहीं है । या तो पूर्ण प्रदेशों वाले जीव को ही जीव कहो, या फिर जीव के चरम प्रदेश को जीव कहो । शेष दशाओं में जीव को जीव नहीं कह सकते ।" तिष्यगुप्त अपनी बात पर अड़ गया । आग्रह मनुष्य को एकान्तवाद की ओर ले जाता है ।
गुरु ने मृदुवाणी में अनेकों प्रकारों से समझाया । पर वह नहीं माना। गुरु ने कहा - " भगवान् का वचन सापेक्ष होता है । अपेक्षा से एक प्रदेश भी जीव हो सकता है । सम्पूर्ण प्रदेश भी
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