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संन्यासी का द्वन्द : १२१
को देखकर मनुष्य को कितनी वेदना होती है ? पर ढंढ मुनि शान्त भाव से सोचने लगा :
"यह मेरा लाभ नहीं है, पर का है। यह भिक्षा कितनी भी मधुर और सरस क्यों न हो, मेरे कल्प की नहीं है।" ___ ढंढ मुनि शान्त चित्त से मोदकों को एकान्त स्थान पर विवेक से डाल रहे थे, कि शुद्ध परिणति से केवल-ज्ञान प्रकट हो गया। जो पाना था, वह पा लिया। जो करना था। वह कर लिया ढंढ मुनि कृत-कृत्य हो गया।
अलाभ को जीतना कितना कठिन काम है। आशा में प्रसन्न रहने वाले संसार में हजारों और लाखों हैं, पर निराशा में भी आशा का दिव्य प्रकाश देखने वाले विरले ही होते हैं।
उ० अ० २, गा० ३१/.
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