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________________ संन्यासी का द्वन्द : ११५ स्वाद लिए भोजन निगल जाता था। स्वाद जय की यह चरम रेखा थी। संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करने के व्रत पर धन्य अणगार अडिग और अचल था। धन्य अणगार अल्प समय की साधना से ही इतनी ऊंचाई पर जा लगा थाजहाँ फूल और शूल में भेद रेखा नहीं थी। अनुकलता और प्रतिकूलता में पृथक बुद्धि नहीं थी। घोर तपस्या से धन्य अणगार का देह क्षीण और कृश बन चुका था। रक्त, माँस और मज्जा-देह में नाममात्र को थी। चर्म से आवत्त केवल अस्थिपंजर हो शेष रह गया था। उठते. बैठते, चलते-फिरते, हड्डियों की कड़कड़ाहट होने लगी थी। धन्य अणमार जीवित था। देह-बल से नहीं, आत्म-बल से । वह खड़ा होता था, देह-बल से नहीं, मनोबल से । वह बोलता था, परन्तु बड़ी कठिनता के साथ । साधक अपने जीवन में भौतिकता से कितना ऊपर उठ सकता है ! धन्य अणगार का जीवन आज भी एक चुनौती बनकर साधकों के सामने खड़ा है । राजा श्रेणिक की राजधानी राजगृही में महाश्रमण भगवान् महावीर पधारे । श्रेणिक दर्शनों को आया। भगवान् से उसने पूछा : "भते, आपके साधक शिष्यों में सबसे ऊंचा साध , कौन है। कौन महादुष्कर किया और महानिर्जरा करने वाला है ?" बिना किसी लाग-लपेट के प्रभु का स्पष्ट उत्तर था : ___ "श्रेणिक, साधकों में सबसे ऊँचा साधक और अणगारों में सबसे ऊंचा अणगार और तपस्वियों में सबसे ऊँचा तपस्वी, धन्य अणगार है। वह महादृष्कर क्रिया करने वाला है, महानिर्जरा करने वाला है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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