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________________ संन्यासी का द्वन्द : १०१ छह मास तक लगातार लोगों के ताड़न, तर्जन को अर्जन ने शान्त भाव से सहन किया। पन्द्रह दिनों की संलेखना करके संयम और तप से आत्मा को भावित किया और अन्त में वह अपावन से पावन बन गया । सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। --अन्त कृ० वर्ग ६, अ० ३/. ज्योतिर्धर जीवन मानव जीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है। त्याग से जीवन में शान्ति, सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है, जब कि भोगमय जीवन सदा ही अशान्त एवं सतृष्ण रहता है। कुशोल एवं हारे मन का मनुष्य साधना में सफल नहीं होता। __ द्वारिका नगरी सौराष्ट्र देश की राजधानी थी। उसके समीप रैवतक पर्वत था । उसके पास ही नन्दन बाग था, जिसमें एक सुर प्रिय यक्षायतन था। द्वारिका, कृष्ण महाराज की राजधानी थी। द्वारिका में ही एक भद्रा सार्थवाही रहती थी। उसका एक पुत्र था-थावच्चा। थावच्चा भोगों में निमग्न था। एक बार अरिष्ट नेमि भगवान वहां पधारे। सुर प्रिय यक्षायतन में विराजित हुए। कृष्ण-देशना सुनने को आए और नगर के प्रजा जन भी। थावच्चा पुत्र ने भगवान् की वाणी सुनकर, माता की आज्ञा लेकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। थेवरों के पास ११ अंग और १४ पूर्वो का अध्ययन किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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