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________________ संन्यासी का द्वन्द : ६१ तक, उत्तर में चुल्ल हिमवान् पर्वत तक, ऊपर सौधर्म विमान तक और नीचे रत्नप्रभा के लोलुयच्युत नरकवास तक जान सकता हूँ, देख सकता हूँ।" आनन्द ने अपनी बात कही। गणधर गौतम ने शान्त स्वर में कहा : "आनन्द ! श्रावक या गृहस्थ को अवधि ज्ञान हो तो सकता है, पर इतना लम्बा नहीं, इतने विस्तार वाला नहीं । आनन्द, तुम अपने इस आलोच्य कथन की आलोचना करके जीवन की शुद्धि करो।" आनन्द ने विनीत भाव से कहा : "भन्ते, क्या सत्य की भी शुद्धि की जाती है ?" ___"हाँ की जाती है।" गौतम ने कहा। ___ "तो, भन्ते, आप भी अपनी शुद्धि करने की कृपा करें।" नम्र स्वर में आनन्द से कहा। गणधर गौतम मौन भाव से वहाँ से चल पड़े । प्रभु के चरणों में उपस्थित होते ही अपने मन में रही शंका की गाँठ खोलकर रख दी और विनय युक्त स्वर में बोले : 'भन्ते, मैं भूल की राह पर हूँ, या आनन्द ?" भगवान् ने स्पष्ट रूप में कहा : “गौतम भूल की राह पर तुम हो, आनन्द नहीं ! आनन्द का कथन सत्य है। उसमें शंका के लिए जरा भी स्थान नहीं है।" साधक सत्य को पाकर ऋद्ध नहीं हर्षित होता है। गणधर गौतम तत्क्षण ही आनन्द के पास आए और क्षमापना की। गणधर गौतम और श्रावक आनन्द दोनों सरलता और नम्रता के मधुर क्षणों में रहकर एक-दूसरे से क्षमायाचा कर रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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