SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तेय दर्शन / ७९ सिद्धान्त की दृष्टि से यह वास्तविक प्रायश्चित नहीं है। जिसे गुनाह से वास्तव में नफरत हो जायगी, यह प्रायश्चित करेगा तो फिर दुबारा लौटकर गुनाह नहीं करेगा। कम से कम जानबूझ कर तो नहीं ही करेगा। और जो प्रायश्चित के पश्चात् भी पूर्ववत् निःसंकोच भाव से गुनाह करता जा रहा है, उसका प्रायश्चित कोरा ढोंग है, समाज में मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने का ढंग है, अपनी अनीति पर धर्म का पालिश चढ़ाना है। यों तो बड़े-बड़े डाकू भी एक ओर लूटते रहते हैं और दूसरी ओर ब्राह्मण भोज कराया करते हैं। और ठाकुर जी का मन्दिर भी बनवाते जाते हैं। मगर जैनधर्म की दृष्टि में यह धर्म नहीं है। मिच्छा मि दुक्कडं : इस भाव को व्यक्त करने के लिए हमारे यहाँ एक कथा आती है। एक बार कुछ साधु किसी कुम्हार के घर पर ठहरे हुए थे। पास में कच्चे घड़े धूप में सूख रहे थे। कुतूहल-वश एक क्षुल्लक साधु ने कंकर उठाया और एक घड़े में मार दिया। घड़े में छेद हो गया । यह देख कुम्हार ने उसको उपालम्भ दिया । क्षुल्लक साधु ने कहा-'मिच्छा मि दुक्कडं।' बात रफादफा हो गई। कुम्हार ने पीठ फेरी और क्षुल्लक साधु ने दूसरा कंकर उठाकर दूसरे घड़े में दे मारा । कुम्हार ने उसे फिर उलाहना दिया। उसने फिर वही वाक्य दोहरा दिया-'मिच्छा मि दुक्कडं ।' कुम्हार कुछ सोचकर कर शान्त रह गया, मगर साधु शान्त न रह सका। उसने तीसरी बार कंकर उठा कर तीसरे घड़े को फोड़ दिया । कुम्हार ने फिर सोचा-यह हजरत यों मानने वाले नहीं । इनकी 'मिच्छा मि दुक्कडं' तो मुझे बर्बाद कर देगी। यह सोच कर कुम्हार उसके पास आया और उसका कान पकड़ कर जोर से ऐंठ दिया। जब साधु ने ऐसा करने का विरोध किया तो कुम्हार ने कहा 'मिच्छा मि दुक्कडं।' और इतना कह कर फिर कान ऐंठा और फिर 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा। साधु समझ गया कि इस प्रकार का 'मिच्छा मि दुक्कडं' कोई मूल्य नहीं रखता। अन्तःकरण से प्रायश्चित करने वाला फिर जान-बूझ कर गुनाह नहीं करेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy