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________________ अस्तेय दर्शन / ७७ लीजिए । मगर चुंगी वाला उनकी मोटर देखने न आता । लाला जी की प्रामाणिकता की चुंगी के अधिकारी के मन पर ऐसी गहरी छाप थी। इस छाप का एक मात्र कारण यही था कि लालाजी कभी चुंगी की चोरी नहीं करते थे। उन्होंने अपने कर्मचारियों को भी ऐसी ही हिदायत कर रक्खी थी। पर आज देखते हैं कि करोड़पति भी चुंगी की चोरी करते हैं और जब कभी पकड़ में आ जाते हैं तो सारी कसर निकल जाती है। चुंगी की चोरी करना भी स्थूल चोरी है । अस्तेय-व्रती न कभी ऐसी चोरी करेगा और न घूस खाकर करने देगा। वह न रिश्वत लेगा, न देगा। इस प्रकार जो विवेक-पूर्ण जीवन-व्यवहार करेगा, उसी का जीवन पवित्र और उज्ज्वल बनेगा और वही भगवान् महावीर की दृष्टि में ऊँचा उठा माना जायगा। तात्पर्य यह है कि चोरी के अनेक रूप हैं और उन अनेक रूपों को विवेकशील पुरुष का अन्तःकरण भली प्रकार से जान भी जाता है। ऐसा करते समय वह अन्दर में इन्कार भी करता है ; मगर उसके हटने पर भी जो नहीं मानता, वह अपने हृदय की हत्या करता है। प्रासंगिक रूप में एक प्रश्न और उपस्थित होता है-एक आदमी अन्याय से पैसा पैदा करता है और साथ ही दान भी देता है, तो क्या यह धर्म माना जाय ? इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें हैं । पहली यह कि, एक आदमी अज्ञानवश धन इकट्ठा करता रहा है, ऐसा करने में उसने न्याय और अन्याय को नहीं जाना है ; किन्तु एक दिन संतसमागम से, सत्साहित्य के अध्ययन से अथवा किसी ज्ञानवान के सम्पर्क से उसके अन्तःकरण में विवेक जागा, सद्भावना जागी और वह सोचने लगा -मैंने अन्याय से, अत्याचार से, चोरी से या ब्लैक मार्केट से धन का संचय कर लिया है, यह बड़ा गुनाह किया है। अब मेरा कर्तव्य है कि 'मैं उसमें से कुछ धन जनता के हित में लगा दूँ ।' अगर किसी में इस प्रकार की बुद्धि जागी है तो मैं समझता हूँ कि यह बड़ा भारी धर्म है। मूल्य पैसे का नहीं, भावना का है। पैसा किधर से भी आया, किन्तु आया है और उसके आने के बाद यदि शुभ भावना जागी है और पैसे वाला पश्चाताप करता है कि बड़ा भारी पाप हो गया है, और उसके प्रायश्चित के रूप में वह जनता की सेवा में उसे अर्पित कर देता है ; तो वह जीवन की महत्ता है। उसका अर्पण धर्म है, अधर्म नहीं है। यह नहीं कि इस प्रकार पाप से आये हुए पैसे का दान करना दान ही नहीं है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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