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७४ / अस्तेय दर्शन उसे 'चोर बाजार' ही कहते हैं । यदि यह अतिचार उपलक्षणरूप न माने जाएँ तो 'ब्लैक मार्केट' को हम चोरी में शुमार नहीं कर सकते और तब क्या उसे साहूकारी का धंधा मानेंगे? जिसे सारी दुनिया चोरी का धंधा कहती है, उसे हम साहूकारी का धंधा मानेंगे तो गजब हो जायगा ! यह तो जैन धर्म पर अमिट कलंक होगा।
हाँ, तो ऊपर बतलाये हुए रूपों में चोरी है, इस कथन में किसी को विवाद और संशय नहीं होना चाहिए । अस्तेय व्रत सम्बन्धी अतिचारों के वर्णन में उल्लेख है कि भाव किसी और वस्तु का किया है और बेची कुछ और ही वस्तु है तो वह चोरी की दृष्टि है, अतः यह व्यवहार चोरी में ही शामिल है। ___ अनजान में जो चीज हो जाती है, वह तो दूसरी बात है, किन्तु जान-बूझ कर, दूसरे को धोखा देकर जो कमाई की जा रही है, वह जैनधर्म की दृष्टि में चोरी ही मानी जाती है।
चोरी के सम्बन्ध में दूसरा प्रश्न भी बड़ा महत्त्वपूर्ण है। श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता है, पर स्थूल चोरी किसे समझा जाय और सूक्ष्म चोरी किसे कहा जाय?
आम तौर पर श्रावक के लिए त्याज्य स्थूल चोरी की व्याख्या वह समझी जाती है कि जिसे 'राज दण्डे और लोक भाँड़े' वही स्थूल चोरी है । ____ मैं समझता हूँ, जिस चोरी को राज्य अपराध समझता है और लोग निन्दनीय समझते हैं, वह तो स्थूल चोरी है ही, किन्तु इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है। आजकल के बाजार में और व्यवहार में ऐसी चीजें चल रही हैं, जिनके लिए राजा दंड भी नहीं देता और जिनकी सर्वसाधारण लोग निन्दा भी नहीं करते फिर भी उन्हें सूक्ष्म चोरी नहीं कह सकते।
बाजार के भावों को ऊँचा-नीचा कर देना और हजारों का शोषण करके अपना पेट भर लेनाः क्या स्थूल चोरी नहीं है ? इससे हजारों छोटे-छोटे सटोरिये मारे जाते हैं और एक बड़ा सटोरिया लाखों एकदम समेट लेता है। यह स्थिति होने पर भी उसे न राजा दण्ड देता है और न चोर के रूप में समाज ही उसे भाँड़ता है ! मगर आप न्याय कीजिए कि हजारों व्यापारियों को मुसीबत में डाल देना, क्या स्थूल चोरी नहीं है ?
जिससे जनता पर बड़ा भारी कुप्रभाव पड़ता हो, जिसमें निर्दयता का भाव हो, उसे चाहे राज दण्डे या न दण्डे, लोक भाँड़े या न भाँड़े, फिर भी उसकी गणना स्थूल चोरी में ही की जाती है।
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