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सम्पदा का अनुपयोग चोरी :
हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरे की धन सम्पत्ति छीनना या चुरा लेना तो चोरी है ही, किन्तु ठीक समय पर अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग न करना भी चोरी ही है। अतएव जो अपने धन-वैभव का, अपने शरीर और मन का और अपनी इन्द्रियों आदि का उचित उपयोग नहीं करते, वे सब भगवान् महावीर के अध्यात्म की भाषा में चोर हैं। गहराई में उतरकर इस चौरी को हमें समझना ही चाहिए।
अस्तेय दर्शन / ६३
कल्पना कीजिये, एक आदमी घर से निकलता है और जब निकलता है तो दो-चार बच्चे उसके साथ हो लेते हैं। वह हलवाई की दूकान पर पहुँचता है और ताजा मिठाई देख कर ललचा जाता हैं। मिठाई खरीदने की बात सोचता है। मगर उसे ख्याल आता है कि इस समय खरीदूंगा तो इन बच्चों को भी इस मिठाई में से हिस्सा देना होगा । ये शैतान जो साथ में हो लिए हैं। इन देवताओं की पूजा न करूँगा तो ठीक न रहेगा और फिर वह बालकों से कहता है-'तुम चले आओ, अभी मिठाई नहीं लेंगे। मिठाई अच्छी नहीं है ! और जब बालक चले जाते हैं तो वह आसन जमाकर बैठ जाता है और मिठाई खरीद कर खा लेता है ।
तो मै पूछता हूँ आपसे कि वह मनुष्य जो मिठाई खा रहा है- क्या वह साहूकारी से खा रहा है या चोरी से ।
वह कहेगा, जेब से पैसे देकर मिठाई ली है, फिर चोरी कैसे हुई ? आज हमारी जो भाषा है और सोचने-विचारने का ढंग है, उसके अनुसार वह चोरी नहीं समझी जाती !
अगर उस आदमी ने मिठाई हलवाई की नजर बचाकर लेली होती तो वह चोरी कहलाती ; मगर क्योंकि उसने हलवाई को तो उस मिठाई के पैसे दिये हैं, साधारण रूप में इसीलिए वह चोरी नहीं है, लेकिन क्योंकि वह उन अबोध बच्चों की नजर बचाकर उस मिठाई को खा रहा है, इसीलिए वह चोर नहीं है तो क्या साहूकार है ? क्या उसने उन बच्चों के अधिकार की चोरी नहीं की है। और क्योंकि उसकी उस चोरी का कुप्रभाव उन बच्चों पर पड़ा है, इसलिए वह तो और भी बड़ी चोरी हुई।
अतः इस प्रकार की चोरी का दुष्परिणाम वहीं तक सीमित नहीं रहता । वह कभी - कभी व्यापक अनर्थ उत्पन्न करता है। क्योंकि, वह आदमी उन बच्चों को
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