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________________ अस्तेय दर्शन/५७ और सब से बढ़कर वह अपनी आत्मा का चोर है। वह आत्मवंचना करता है, अपने आपको धोखा दे रहा है। यह बात आप जल्दी और बिना किसी संकोच के समझ गये हैं, मान गये हैं । मगर यही बात आपको अपने सम्बन्ध में भी समझनी और माननी चाहिए। आप अपने लिए कृपण' शब्द का प्रयोग कर सकते हैं । अर्थात् कह सकते हैं कि अपने धन का अपने या दूसरे के लिए उपयोग न करने वाला और इस रूप में अपने परिवार और समाज के प्रति कर्त्तव्य से विमुख रहने वाला व्यक्ति 'चोर' नहीं, कृपण है। तो इस तरह तो मैं साधु के लिए कोई शब्द गढ़ सकता हूँ और कह सकता हूँ कि अपने कर्तव्य का पालन न करने वाला वह साधु कृपण है या दुर्बल है, ढीला है। न्याय की तुला किसी का लिहाज नहीं करती। अतएव अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले साधु को आप जिस शब्द से सम्बोधित करने को तैयार हैं, उसी शब्द से अपने कर्त्तव्य से विमुख रहने वाले गृहस्थ को भी सम्बोधित करने में क्यों संकोच करते हैं ? मतलब यह है कि जैसे अपने उत्तरदायित्व को न निभाने वाला साधु चोर है, उसी प्रकार वैसा श्रावक भी चोर है। जो व्यक्ति श्रावक के रूप में हमारे सामने आ गया है, किन्तु कर्तव्य का पालन करने के लिए तैयार नहीं है और जिस समय जो कार्य करना चाहिए, उसे नहीं करता है, सशक्त होते हुए भी कर्त्तव्य से जी चुराता है, फिर भी वह यदि श्रावक होने का दावा करता है, तो बताइए उसे क्या कहना चाहिए? वह साहूकार कहलाने योग्य है या चोर कहलाने योग्य ? जो जिस पद को लेकर खड़ा है, उस पद के उत्तरदायित्व और कर्तव्य को यदि नहीं निभाता तो वह चोर है या साहूकार है ? ___ एक व्यक्ति राजसिंहासन पर बैठ गया। छत्र-चँवर धारण कर लिये और महलों में रहने लगा । जहाँ भी जाता है हजारों आदमी 'घणी खमा' करते हैं । प्रजा से आदर-सत्कार और यश-प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहा है और आनन्द ले रहा है। इस स्थिति में उसका भी प्रजा के प्रति प्रेम होना चाहिए। उसमें प्रजा के कल्याण की भावना होनी चाहिए। उसे प्रयास करना चाहिए कि मेरी प्रजा दीन और दरिद्र न रहे, बल्कि समर्थ और समृद्ध बने । दुराचारी न बने, बल्कि सदाचार के सौरभ से सम्पन्न हो। उसे प्रजा के ल्याण के लिए अपने सुख का बलिदान करना चाहिए। स्वयं दुःख झेल कर प्रजा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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