SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तेय दर्शन/४१ कट जाती हैं । ऐसे पवित्र स्थानों में भी जूते चुरा लिए जाते हैं । जिस देश में, धर्मस्थानों में भी जूते सुरक्षित नहीं रहते, वहाँ की नैतिकता कितनी गिर गई है, वह अनुमान करना कठिन नहीं है। अग्निकुमार की प्रामाणिकता : ___ भारत के इतिहास में अग्निकुमार नामक एक भाई की कहानी आती है। एक बार वह किसी दूकानदार की दूकान के बाहरी बरामदे में सो गया। दूकानदार संध्या समय अपनी रोकड़ मिलाते समय, अशर्फियाँ गिन रहा था। उसने गिन-गिना कर रोकड़ मिलाई और दूकान बंद करके घर चला गया। पर भूल से वहाँ एक अशर्फी पड़ी रह गई। अग्निकुमार बाहर सोया हुआ था। उसके पास बिछाने के लिए टाट का एक टुकड़ा ही था। अचानक ही उसे कोई चीज टाट के नीचे गढ़ने लगी। उसने हाथ लगाकर देखा तो अशर्फी। अग्निकुमार ने सोचा-कल दूकानदार अशर्फिया गिन रहा था, उसी की यह अशर्फी बाहर रह गई होगी। सुबह जब दूकानदार वापिस आया, तब वह अग्निकुमार वहीं बैठा रहा। उसने दूकानदार से आते ही कहा-भाई बहुत देर से आये। अब अपनी दूकान संभाल लो। मैं जा रहा हूँ। दूकानदार-दूकान तो सँभली हुई ही है, इसका क्या सँभालना है ? दूकान का ताला बंद था और तुम बाहर ही थे। मेरे लिए इतना समय क्यों खराब किया ? अग्निकुमार-मैं चला तो जाता, पर इस अशर्फी ने नहीं जाने दिया। अचानक रात्रि में यह गढ़ने लगी। देखा, अशर्फी है। सोचा, तुम्हारी ही होगी। रात भर, इसकी चिन्ता में नींद नहीं आई। निश्चय किया, सुबह इसे सँभला कर ही अपना रास्ता लूँगा। दूकानदार अग्निकुमार की सचाई और प्रामाणिकता देख कर मुग्ध हो गया। उसने अग्निकुमार का बड़ा सत्कार किया, उसे धन्यवाद दिया और अशर्फी लेकर कहने लगा, लो, यह अशर्फी मैं तुम्हें इनाम में देता हूँ। बहुत मनुहार करने पर भी अग्निकुमार ने अशर्फी लेना स्वीकार न किया । इसे कहते हैं प्रामाणिकता का जीवन । जिसके जीवन में प्रामाणिकता और न्यायनीति होती है, वह किसी भी सच्ची बात को कहते हुए हिचकता नहीं है। फलतः चाहे वह कितना ही क्यों न गरीब हो, सर्वत्र उसका आदर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy