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________________ अस्तेय दर्शन / ३९ जीवन चूस चूस कर जो कमाई की जाती है, वह एक प्रकार की आग है। वह जहाँ जाती है, वहीं शान्ति को जला देती है। दूकान में भी वह अशान्ति ही पैदा करती है और घर में भी । अनीति की कमाई परिवार के लोगों के जीवन को भी गला देती है। ऐसे धन को धर्मशास्त्रों ने भी अशान्ति का मूल कारण बतलाया है और न्यायोपार्जित धन को शान्ति का कारण बतलाया है। आचार्य हरिभद्र ने तो साफ कहा है 'न्यायोपात्तं हि वित्तमुभय-लोक-हिताय' । धर्म-विन्दु-प्रकरण | न्याय से उपार्जित धन दोनों लोकों में कल्याणकर होता है। जो लोग धन को यहीं के हित के लिए समझते हैं, उन्होंने बड़ी गड़बड़ी पैदा की है। ऐसी समझ से चलने बाले अपनी सन्तान के लिए भी इस लोक से विदा होते समय गलत चीज छोड़कर जाते हैं और परलोक में भी उनको उनके काम के सुन्दर फल प्राप्त नहीं होते । इसीलिए आचार्यों ने न्यायोपात्त धन को उभय लोक के हित के लिये बताया है। मतलब यह है कि मनुष्य को धन कमाते समय इस लोक और परलोक दोनों ओर अपनीआँखें रखनी चाहिए। पैसा अपने आप में कोई बुरी या भली चीज नहीं है। उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई मनोवृत्तिही भलाई - बुराई की जननी है । अगर पैसा न्याय से कमाया हुआ है और उसके लिये गरीबों के खून की होली नहीं खेली गई है, तो ऐसी न्याययुक्त कमाई करने वाला अपने प्रस्तुत लोक में भी हँसता हुआ, निर्भय और निर्द्वन्द्व होकर चलता है और परलोक में भी । न्याययुक्त धन का दान इस लोक में लेने वाले के हक में बरकत करता है और दाता के भी दोनों लोकों को हितकर बनाता है। इसके विपरीत अन्याय का धन इस लोक में तो गड़बड़ करता ही है, परलोक में भी गड़बड़ करना शुरू कर देता है । इसीलिये कहा जाता है कि गृहस्थों के जीवन में अगर न्यायनीति हो, प्रामाणिकता हो, तो वह साधुओं के जीवन को भी सुन्दर बना देती है। साधु चाहे संख्या में थोड़े ही हों, उनका जीवन सत्य के रंग से रंगा हुआ होना चाहिए। साधुता से युक्त साधु तो थोड़े ही होते हैं। हर किसी को झोली पकड़ाने से क्या लाभ? भारतवर्ष आज साधुओं की जो बाढ़ आ गई है, वह कल्याणकर नहीं है। सच्ची साधुता तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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