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२४ / अस्तेय दर्शन
विचार करना है। एक की अनीति देख कर दूसरा भी अनीति में प्रवृत्त हो जाएगा तो अनीति की परम्परा किस जगह जा कर रुकेगी ? नीति को कहाँ जगह रह जायगी ? दूसरे लोग यदि मार्ग भूले हैं तो हम जान-बूझ कर क्यों उनके पीछे चलें ।
देश के ऊपर आज बहुत बड़ा संकट है। देश संक्राति के युग से गुजर रहा है। व्यापारी चाहें तो इस संकट को टालने में महत्त्वपूर्ण योग दे सकते हैं। इससे देश की रक्षा होगी, व्यापारी वर्ग की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और भारतवर्ष की प्राचीन व्यापार नीति के उज्ज्वल उद्देश्य की भी रक्षा होगी।
मैं समझता हूँ कि इस ढंग से चलने में ही व्यापारी समाज का लाभ है। इस ढंग पर न चल कर व्यापारी अगर अपना मौजूदा रवैया नहीं बदलते तो ऊबी हुई जनता एकदम असहिष्णु बन जायगी । वह व्यापारियों के अस्तित्व को एक दम उखाड़ फेंकेगी और विनिमय एवं आयात-निर्यात की किसी दूसरी पद्धति को प्रचलित करेगी । उस समय व्यापारी वर्ग को जो क्षति उठानी पड़ेगी, उसका आज अनुमान करना भी कठिन हैं । अतएव व्यापारी लोग अगर दूरदर्शी हैं तो समय रहते उन्हें सावधान हो जाना चाहिए और व्यापार के नाम पर चलने वाली नाना प्रकार की तस्कर -वृत्ति का परित्याग कर देना चाहिए।.
कहाँ दूसरे देशों के लोग हैं जो गरीबी में जीवन गुजारते हुए भी अपने देश को ऊँचा उठाने में लगे हुए हैं और कहाँ हमारे देश के लोग हैं जो अपनी तिजोरियाँ भरने दत्तचित्त हैं। जब हम विचार करते हैं कि दूसरे देशों को वसीयत के रूप में एक महान् और अत्यन्त उज्ज्वल परम्परा नहीं मिली है, फिर भी उनमें अस्तेय का भाव उस देश के निवासियों की अपेक्षा, जिसे कि वह परम्परा वसीयत में मिली है, अधिक है, तो हमारे आश्चर्य का पार नहीं रहता ।
भारत की श्रेष्ठ सभ्यता हमारे सामने है, फिर भी भारतीय पाप करके धर्म करने की मृगतृष्णा के पीछे दौड़ रहे हैं। उनकी समझ में क्यों नहीं आता कि पापों को छोड़ देना भी अपने आप में बड़ा धर्म है ?
जैन धर्म या दूसरा कोई भी धर्म, धर्म करने के लिए पाप करने की प्रेरणा नहीं करता । प्रत्येक धर्म पाप न करने की ही बात कहता है। अगर व्यापारी, जो किसी समय महान् थे किन्तु आज नीचे गिर गये हैं, देश को बनाना चाहेंगे तो बना देंगे और बिगाड़ना चाहेंगे तो बिगाड देंगे।
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