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________________ अस्तेय दर्शन / १९ जो महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया था, इस गई-गुजरी हालत में भी उसका ध्वंसावशेष कहीं-कहीं दृष्टिगोचर होता है। अन्यथा आज का व्यापारी तो व्यक्तिगत स्वार्थ की दलदल में फँस गया है। उसने अपनी ही स्वार्थपूर्ति के लिये व्यापार की कला सीखी है । अतएव वह संसार की नजरों में गिरता जा रहा है और उसकी प्रतिष्ठा टुकड़े-टुकड़े होती जा रही है। संभव है, भारत में विदेशियों का सन्मान हो, किन्तु विदेशों में भारत के व्यापारी का सन्मान नहीं है। हमें जो जानकारी मिली है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के दूसरे वर्गों के व्यक्तियों का, चाहे वे झाडू लगाने वाले ही क्यों न हों, विदेशों में जितना सन्मान है, व्यापारी वर्ग का उतना भी सन्मान नहीं रह गया है। कारण यही है कि उन्होंने प्रामाणिकता का परिचय नहीं दिया है । आज के व्यापारी नमूना कुछ भेजते हैं और चीज कुछ भेज देते हैं । भारत सरकार इंग्लैण्ड और अमेरिका के साथ व्यापार सम्बन्ध जोड़ने की बात-चीत करती है, किन्तु इंग्लैण्ड और अमेरिका को भारतीय व्यापारियों के विरुद्ध शिकायत है कि जो चीज भेजी जानी चाहिए, वह नहीं भेजी जा रही है ! इस प्रकार की शिकायतें भारत सरकार के भवन में पड़ी रहती हैं। व्यापारियों को चुनौती दी जाती है, फिर भी वे अपनी प्रकृति नहीं बदलते हैं। इससे न केवल उन्हीं की, बल्कि देश की प्रतिष्ठा को भी क्षति पहुँचती है। विदेश में मधुर वही बन सकेगा, जो देश में भी मधुर होगा। जो अपने परिवार मीठा और नम्र होता है, ईमानदारी से काम करता है और अपने सगे भाई के साथ प्रेम का व्यवहार कर रहा है, यदि उसके पास कला है तो वह दूसरे के साथ भी मीठा व्यवहार कर सकेगा । हाँ, तो आज का जो भारतीय व्यापारी है, उसके ऊपर चोरी की गहरी छाप लग गई है। उसने भगवान् महावीर के अस्तेय - अचौर्यव्रत के संदेश को भुला दिया है। परन्तु जो उस महान् संदेश पर कायम रहता है, उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं हो सकती । विश्वास और प्रतिष्ठा के आधार पर ही जगत् के व्यवहार ठीक तरह चलते हैं । हम साधु भी देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जाते हैं। जनता के ऊपर हमारे प्रति विश्वास की एक भूमिका है। उसी के सहारे ही हम अपनी यात्रा सम्पन्न करते हैं । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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