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________________ अस्तेय दर्शन/३ इसी प्रकार अन्दर में यदि चरित्रबल है और बाहर में व्रत, नियम, उपवास आदि हैं तो वे बहुमूल्य होंगे। मैं उनकी कीमत कम नहीं करना चाहता हूँ । वास्तव में वे बहुमूल्य हैं, किन्तु काम तभी देंगे, जब आन्तरिक चारित्रबल प्रबल होगा। एक साधारण-सी साइकिल की भी गति-क्रिया होती है और सैकड़ों मील की यात्रा करती चली जाती है। उसके ऊपर आदमी बैठ जाता है और वजन भी रहता है। वह सब को लेकर चलती है। लेकिन यह होता तभी है जब उसके भीतर टयूब में हवा भरी होती है। अन्दर में हवा की शक्ति न हो तो वह गाड़ी चलती नहीं,खड़ी हो जाती है। यदि उसे चलाएँगे तो वह आप को लेकर नहीं चलेगी, आपको घसीट कर चलानी पड़ेगी। जब पंचर हो जाता है, तो हवा समाप्त हो जाती है, और फिर उसे स्वयं घसीट कर चाहे कितनी ही दूर क्यों न ले जाएँ, किन्तु उस में स्वयं चलने की शक्ति नहीं है। हमारे जीवन की गाड़ी का भी यही हाल है। यदि उसमें अन्दर की साधना है, चरित्र का बल है, तो जीवन ठीक तौर से आगे चलेगा, अग्रसर होगा और हम अपने लक्ष्य पर पहुँच जाएँगे और यदि अन्दर की शक्ति क्षीण हो जाय, अन्दर का चारित्र-बल रूप पवन निकल जाय, या हो ही नहीं, तो साधुपन और श्रावकपन को घसीटते-घसीटते ले जाना पड़ता है। वह साधक आगे नहीं बढ़ सकेगा। उसकी साधना भार बन जाएगी और उसे चाहे कितने ही वर्षों तक ढोना पड़े, वह भारस्वरूप ही बनी रहेगी । वह तुम्हें नहीं ढोएगी, तुम्हें ही उसे ढोना पड़ेगा। तो आध्यात्मिक जीवन की जो परम्परा है, साधना है, वह आत्मदेवता के प्रति वफादार होना चाहिए, जो कि हमारा मूल जीवन है। साराँश यह है कि जब तक हम अन्दर में रहते हैं, तब तक गति करते हैं, अन्यथा नहीं । शिष्य और मशाल : __प्रत्येक धर्म के प्रवर्तक कुछ रोशनी लेकर आगे बढ़े हैं। उस रोशनी के विषय में, बंगाल के एक अध्यात्मवादी संत बाउल कहते हैं-हरेक धर्म-प्रर्वत्तक आचार और विचार की जलती मशाल लेकर आगे बढ़ता है और अंधकार में भटकती हुई प्रजा, जिसको राह नहीं मिल रही है, उसके पीछे हो लेती है और अपना मार्ग तय करती है। जब उसका जीवन समाप्त हुआ तो उसने वह मशाल अपने शिष्य को दे दी और शिष्य आगे बढ़ा । मगर दुर्भाग्य से क्या हुआ, संत बाउल कहते हैं कि शिष्य के हाथों में दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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