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________________ १३६ / अस्तेय दर्शन पर चिन्तन के लिए मस्तक नहीं है। स्पष्ट है, कि उक्त कथा के आधार पर कोरे बुद्धिजीवी राहु हैं ; और कोरे श्रम-जीवी केतु । राष्ट्र का विकास हो, तो कैसे हो? सही अर्थों में दिव्य मानव बनने के लिए मन की अर्थात् मनन की, चिन्तन की अपेक्षा है। तन से कर्म करना है, पर वह कर्म कैसा है, उसका क्या परिणाम हो सकता है. व्यष्टि और समष्टि के हित में वह हितकर है क्या, यह सब विचार कर लेना आवश्यक है। मनन ही कर्म में सौंदर्य लाता है। कर्म का विकास केवल श्रम पर आधारित नहीं है । श्रम की पृष्ठभूमि में रहे, यथोचित मनन पर आधारित है। मन (मनन) से जुड़े तन के श्रम में ही 'श्री' की उपलब्धि होती है। अतः तन नहीं, तन के साथ जुड़ा मन ही मनुष्य है। अतः ज्ञान और कर्म में, समन्वय की परम आवश्यकता है। दोनों के संतुलन से ही मानव का और जिस समाज में वह रहता है, उस मानव-समाज का भी कल्याण हो सकता है, विकास हो सकता है। फरवरी, १९७७ वीरायतन राजगृह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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