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________________ १४ मानव तन है या मन ? मनुष्य क्या है ? मनुष्य तन है या मन ? यह एक बहुत पुराना प्रश्न है। हमारे भारतीय मनीषियों ने कहा है, कि तन तो तन है, केवल भौतिक प्रकृति का पिंड है। जल, अग्नि, वायु और मिट्टी का खेल है। इसके अतिरिक्त इस शरीर के पास और कुछ नहीं है। जो कुछ है सर्वोपरि एक मन है। वही मनुष्य है। इसलिए कहा है “मननात् मनुष्यः ।" जो मनुष्य मनन एवं चिन्तन करता है, सत्य, असत्य तथा हित-अहित का विश्लेषण करता है-मैं कौन हूँ ? मेरा क्या है ? और संसार में मेरा क्या कर्तव्य है ? मैं यहाँ क्यों आया हूँ ? क्या कर रहा हूँ ? और क्या करने जाऊँगा? यह मनन-चिन्तन जो करता है, वास्तव में वही मनुष्य है। केवल शरीर का मनुष्य होने से कोई मतलब नहीं है। हमारे भारतीय मनीषियों ने मनुष्य की महिमा का गुणगान किया है। "माणुस्स खु सुदुल्लहं" । भगवान् महावीर ने कहा था, कि मनुष्य होना बहुत दुर्लभ है। कौन-सा मनुष्य होना दुर्लभ है, कठिन है ? शरीर का मनुष्य होना कोई कठिन नहीं है। आबादी इतनी भयंकर रूप से बढ़ती जा रही है, सारे विश्व की, कि परेशान हैं, आज के समाजशास्त्री एवं राष्ट्रनेता । प्रश्न यह है, कि क्या होगा, इस धरती पर मनुष्य का। इंसान जब इतना बढ़ जायेगा, तब इस भूमि पर काम करने को कहाँ जगह मिलेगी उसे ? भरण-पोषण के लिए कहाँ उत्पादन होगा? कहाँ खाना मिलेगा? कहाँ अनी मिलेगा? बहुत बड़ी समस्या है। बेतुकी बढ़ती हुई जनसंख्या पर नियन्त्रण के लिए चारों ओर परिवार-नियोजन का हल्ला मच रहा है। इसका अर्थ यह है, कि शरीर का मनुष्य होना, कोई दुर्लभ नहीं है। ... ___यथार्थ मनुष्य केवल मन का ही मनुष्य है । जिसका मन उदात्त है, उदार है, विशाल है, वही मनुष्य, मनुष्य है। मानव आकृति में तो नरक हैं, दैत्य हैं, दानव भी हैं। और, अनेक जलचर हैं, पशु भी हैं। क्या इतने पर से वे मनुष्य हैं ? यदि वे मनुष्य नहीं हैं, तो केवल अपनी मानव आकृति पर से मनुष्य ही मनुष्य कैसे हो सकता है ? कुछ लोग कर्म तो करते हैं । हाथों से काम लेते हैं,शरीर से काम लेते हैं, लेकिन उसके साथ मन को पूरी तरह से जोड़ नहीं पाते हैं। जब तक मन को पूर्णतः कर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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