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________________ अस्तेय दर्शन / १३१ चातुर्मास में वहाँ देखा था, कि कूणिक के एक दिन के उस अजेय दुर्गम दुर्ग के खण्डहर पर एक जगह पुरातत्त्व विभाग ने पट्टी.लगवा रखी है-"अजातशत्रु का किला। पर, आज उसमें शूकर घूमते हैं, गधे चरते हैं, और लोग शौच के लिए जाते हैं ? क्या उसने कल्पना की थी, कि मेरे इस महान् दुर्ग में, जहाँ एक दिन बड़े-बड़े वीर सामंत भी आते, धूजते थे, वहीं एक दिन यों स्वच्छन्द शूकर घूमेंगे और गधे चरेंगे ! जनता शौच के लिए इस्तेमाल करेगी। ___ मैं आपसे कह रहा था कि कृणिक ने जिस राजसिंहासन को और जिस साम्राज्य को अपनी प्रतिष्ठा का आधार माना था, वह एकमात्र उसकी बहक थी, भल थी। और उसका परिणाम भी कुछ तो उसी जीवन में उसे भुगतना पड़ा। श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् लोकापवाद से विह्वल होकर उसने राजगृह का त्याग करके चम्पा में जाकर अपनी राजधानी बसाई। और जीवन के अन्त में चक्रवर्ती बनने की उद्दाम लिप्सा के वश होकर तमिसागुफा के द्वार पर भस्म होकर वह इस संसार से सदा के लिए मिट गया। भारत की संस्कृति, त्याग की संस्कृति : इसके विपरीत जिन के जीवन में प्रतिष्ठा और महत्ता का आधार त्याग, चरित्र एवं प्रेम रहा है ; वे चाहे राज सिंहासन पर रहे, या जंगल में रहे, जनता के दिलों में बसे रहे हैं, जनता उन्हें श्रद्धा से सिर झुकाती रही है। भारतीय संस्कृति में जनक का उदाहरण हमारे सामने है। जनक के जीवन का आधार साम्राज्य या वैभव नहीं रहा है, बल्कि त्याग, तप, न्याय-निष्ठा और जनता की सेवा का रहा है, तो वह जनता का पूज्य बना है। जनता ने उसका नाम भी 'जनक' अर्थात् पिता रख दिया, जबकि उसका वास्तविक नाम और ही था। वह राजमहलों में रहा, फिर भी उसका जीवन-दर्शन जनता के प्रेम में था, प्रजा की भलाई में था। वह वास्तव में ही प्रजा का जनक अर्थात् पिता था। ____ मैं आपसे बता रहा था, कि हमारी संस्कृति धन, ऐश्वर्य या सत्ता की प्रतिष्ठा में विश्वास नहीं करती है। हमारे यहाँ महल और बंगलों में रहने वाले महान् नहीं माने गए हैं । रेशमी और बहुमूल्य वस्त्र पहनने वालों का आदर नहीं हुआ है, किन्तु अकिंचन भिक्षुओं की प्रतिष्ठा रही है। झोपड़ी और जंगल में रहने वालों की पूजा हुई है और बिल्कुल सादे, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र पहनने वालों पर जनता कुर्बान होती रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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