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१२८ / अस्तेय दर्शन
वह उनमें बह जाता है। जीवन में यह सबसे बड़ी खतरनाक घड़ी होती है, जब मनुष्य धैर्य के बाँध तोड़कर तुरन्त फल पाने के लिए आकुल हो उठता है । जीवन तो एक साधना है। फल के लिए व्याकुल होने से साधना खण्डित हो जाती है। कर्म करते चले जाओ, निष्काम भाव से करते जाओ, एक-न-एक दिन कर्म की सफलता निश्चित है। उसके लिए अधीर या व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है। निष्कामता जीवन में जब जगती है, तब मनुष्य धैर्यशाली, विचारशील एवं समाधिनिष्ठ बनता है। निष्कामता बनाम निष्कर्मता :
कभी-कभी निष्काम कर्म का अर्थ समझने में बड़ी गड़बड़ी हो जाती है। निष्काम कर्म का अर्थ, शून्यता या निष्क्रियता नहीं है। यह तो जड़ता है। धर्मात्मा का अर्थ यह नहीं कि वह मिट्टी के ढेले की तरह जहाँ पड़ा है वहीं पड़ा रहे । यह तो निष्कर्मता हो गई। निष्कर्मता हमारा आदर्श नहीं, हमारा आदर्श है निष्कामता।
एक गाँव में हम गए। गाँव के बाहर महंत जी का आश्रम था, साफ-सुथरी एकांत जगह । विश्राम के लिए ठहर गए । महन्त जी बहुत भी भारी भरकम थे। हाथ-पैर पसारे लम्बे-चौड़े होकर लेटे रहते थे । ऐसे ही बात चली तो मैंने हँसकर कहा-"आपका शरीर तो बहुत स्थूल हो गया है।"
महन्त जी बोले-"और क्या, संत और मतीरे (तरबूज) तो पड़े-पड़े ही फूला करते हैं।" - मुझे जरा हँसी आ गई। वास्तव में संत की यह व्याख्या तो नहीं होनी चाहिए, कि वह निष्कर्म होकर पड़ा रहे । कर्म तो करते रहना चाहिए। संत हो, चाहे गृहस्थ, अकर्म की स्थिति में यों कोई मनुष्य कैसे रह सकता है ? कर्म का निषेध नहीं, कर्म के लिए शर्त केवल इतनी है, कि कर्म के साथ कामना नहीं होनी चाहिए।
एक सज्जन थे। अच्छे पैसे वाले थे। गाँव में किसी कारण से आग लग गई, तो गरीबों की सहायता के लिए लोगों से चंदा किया। उक्त सज्जन हमारे पास उपाश्रय में बैठे तत्त्व चर्चा कर रहे थे। उनसे भी निवेदन किया तो वे बोले-“मैं तो चंदा नहीं देता।" लोगों ने पूछा-"क्यों नहीं ?" तो बोले-"इस प्रकार के सेवादान का फल पुण्य होता है, पुण्य से स्वर्ग में जाना पड़ता है, वहाँ फिर बन्धन होता है, मुक्ति तो नहीं । मैं बंधन का काम नहीं करता।"
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