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११४/ अस्तेय दर्शन
है, कि बात-बात पर गालियाँ देने लगता है। यदि उसके रोगों एवं गालियों की ओर ध्यान दिया जाए, तो मन में उसके प्रति घृणा, तिरस्कार एवं द्वेष ही जागृत होगा। परन्तु हम अपने मन को इस बात के लिए तैयार करती हैं, कि यह बेचारा रोग की विकृति से पीड़ित है । अतः इस पर द्वेष नहीं करना है । सब ओर से इसे घृणा, तिरस्कार और द्वेष तो पहले ही मिल रहा है। हमें तो इसे प्रेम, स्नेह माधुर्य देकर स्वस्थ करना है। इसलिए उसकी कटु गालियों का उत्तर हम हंसते हुए स्नेहमयी मधुर भाषा में देती हैं, दिन-रात उसकी सेवा में लगी रहती हैं । सहिष्णुता, क्षमा और करुणा का पाठ हमें काफी गहराई तक सीखना होता है, और निष्ठा के साथ उसे जीवन में साकार रूप देना होता है। घर पर परिवार के बीच में कभी-कभी आवेश उभर भी आता है। परन्तु बीमार की सेवा के समय हमें आवेश पर कन्ट्रोल करना पड़ता है।
बहन की बात काफी गम्भीर है। सामान्य लोग इन बहनों की क्षमा, सहिष्णुता और सेवा का मूल्यांकन ठीक तरह नहीं कर पाते । वे समझते हैं, कि इसमें क्या है ? बदले में वेतन जो लेती है। परन्तु मैं कहता हूँ, वेतन शारीरिक सेवा कार्य का ही तो है, परन्तु उसके पीछे जो भावना है, कर्तव्य की निष्ठा है, उसका मूल्य क्या कोई दे सकता है? आज तक भावना का मूल्य न कोई दे सका है, और न कोई भविष्य में दे सकेगा। वेतन शरीर के स्थूल श्रम का होता है, जो सीमित है, घण्टों के हिसाब से उसकी गणना होती है, परन्तु भावना असीम है, अनन्त है, अतः उसकी गणना हो सके, यह सम्भव ही नहीं है।
मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जो भी कार्य करना है-भले ही वह सेवा का हो, शिक्षा का हो या उपचार का हो, उसमें क्रिया तो होगी ही। आप विकारों को छोड़ सकते हैं । परन्तु क्रिया का परित्याग करके निष्क्रिय नहीं हो सकते हैं। कार्य करना है, तो सक्रिय होना ही होगा। प्रारब्ध कार्य को पूरा करना ही होगा। चन्दना जी कहा करती हैं, कि या तो कार्य को छेड़ो मत (प्रारम्भ न करो) और छेड़ो तो छोड़ो मत । भारत के एक महान् मनीषी आचार्य ने भी कहा है
"अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम् ।
आरब्धस्यान्त गमनं द्वितीय बुद्धिलक्षणम्॥" मनुष्य में बुद्धि होने का पहला लक्षण यह है, कि वह कोई भी कार्य आराम ही न
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