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________________ ११२ / अस्तेय दर्शन का अर्थ है - चेतना को किसी भी तरह का आघात एवं चोट पहुँचाना। व्यक्ति के मन क्लेश, दुःख एवं कष्ट पहुँचाना तथा उसके अन्तर मन में द्वेष और प्रतिशोध की भावना को जागृत करने में निमित्त अर्थात् कारण बनना ही हिंसा है। वास्तव में अपनी चेतना में, भावना में और विशुद्ध विचारधारा में विकृति लाना और दूसरे के मन के भावों की विकृति की ओर प्रवहमान करने में सोद्देश्य कारण बनना ही हिंसा है। मुख्य प्रश्नकर्ता की भावना का है। फिर भले ही आप प्रहार के द्वारा किसी को चोट पहुँचा सकें या न पहुँचा सकें ; उसे क्षतिग्रस्त कर सकें, या न कर सकें और उसके भावों को विकृत कर सकें, या न कर सकें। यह सब होना तो परिस्थिति पर निर्भर है। अतः बाह्य घटना का रूप प्रवृत्ति मुख्यतया मापदण्ड नहीं हैं, हिंसा और अहिंसा को मापने का मुख्य मापदण्ड है, उससे आपकी चेतना प्रभावित हुई उसमें विकृति आई । आपकी भाव-धारा स्वभाव से हटकर विभाव की ओर, अशुभ भाव की ओर प्रवहमान हुई और यही है हिंसा । अतः दूसरे का विनाश करने की, दूसरे को क्षति पहुँचाने की और दूसरे को गिराने की भावना हिंसा है। इसके विपरीत दूसरे का हित करने की दूसरे को ऊपर उठाने की, दूसरे को सुख-शान्ति पहुँचाने की शुभ एवं प्रशस्त भावना अहिंसा है। मानव मन में यह अनुभूति होनी चाहिए, कि सब व्यक्तियों में चेतना एक-सी है। मुझे दुःख अप्रिय लगता और सुख प्रिय लगता है। मैं नहीं चाहता, कि कोई व्यक्ति मेरे पर प्रहार करे, मेरा अपमान और तिरस्कार करे, तो मुझे भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए, किसी का अपमान नहीं करना चाहिए और किसी पर प्रहार नहीं करना चाहिए, बल्कि सबके साथ प्रेम, स्नेह एवं मधुर व्यवहार करना चाहिए, और सबका यथोचित सम्मान करना चाहिए। अस्तु, दूसरे को दुःख, कष्ट एवं पीड़ा नहीं देना, और यदि उसे कोई कष्ट दे रहा हो, तो उससे मुक्त करने का प्रयत्न करना अहिंसा है। श्रमण भगवान महावीर का दर्शन केवल निषेध की भाषा का प्रयोग नहीं करता । वह सिर्फ नकारात्मक दर्शन नहीं है। वह विधेयात्मक बात भी कहता है। अहिंसा के सम्बन्ध में श्रमण भगवान् महावीर ने हिंसा मत करो, किसी के प्राण मत लो, इतना ही नहीं कहा, परन्तु उन्होंने इस सम्बन्ध में यह भी स्पष्ट कर दिया, कि अपने हृदय में से, मन में से द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, लोभ, प्रतिशोध के भावों को निकाल कर मैत्री, प्रेम, स्नेह, करुणा, दया और अनुकम्पा की मधुर भावना से उसे परिपूर्ण करो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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