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________________ १०६ / अस्तेय दर्शन यही हाड़-मांस की आकृति है, कोई थोड़ी ऊँची सीधी बन गई है, कोई थोड़ी टेढ़ी-मेढ़ी तिरछी। जब शरीर में कोई मौलिक भेद नहीं मालूम होता है, तो आखिर कौन-सी ऐसी बात है, कि जिससे पशु पशु है और मनुष्य मनुष्य ? मन से भी परे: ____ भारतीय संस्कृति के उन्नेताओं की आँखें जीवन की प्रथम सीढ़ी, शरीर पर ही नहीं टिकी रहीं, बल्कि उसकी अगली सीढ़ी पर भी चढ़ती गईं। और इसका पता लगाया, कि शरीर के परे इन्द्रियों का यह क्या खेल चल रहा है। शरीर तो स्थूल है, और वह है पंचभूतों का एक ढाँचा मात्र । इसके बाद जो दूसरा सूक्ष्म तत्व है, वह है, मन । जब तक मन किसी इन्द्रिय के साथ संयुक्त नहीं होता है, तब तक इंद्रियाँ अपने कार्य को पूर्ण रूप से नहीं कर सकतीं । जैन दर्शन एवं आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार भी जब तक सूक्ष्म मन का योग इन्द्रिय की किसी क्रिया के साथ नहीं जुड़ता है, तब तक उस क्रिया की अनुभूति नहीं होती। मन से भी अगली मंजिल पर जिसका अधिकार है, वह है आत्म-तत्त्व । हमारी सभी गतिविधियों का केन्द्र वहीं है। संसार का सबसे महान् और सबसे गुप्त तत्त्व यही है। यही वह तत्त्व है, जिसकी ज्योति सदा प्रज्ज्वलित रहती है, आँधी वर्षा और तूफान, भूख, प्यास, सर्दी और गर्मी कोई भी तत्त्व इसका तेज मंद नहीं कर सकता, जब इन्द्रियाँ सोती हैं. मन ऊँघने लगता है, तब भी यह परम तत्त्व जगता रहता है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को सघन काली घटाओं की काली चादर भी ढंक नहीं सकती, एक बार यदि प्रकाश कुछ फीका पड़ भी जाए तो पुनः उन घटाओं को चीर कर सूर्य का ज्वाजल्यमान आलोक घटा को दीप्त करने लग जाता है। उसी प्रकार आत्मा पर कर्मों के अनेक गाढ़े आवरण भी पड़ते गए हों, आँखें भी जवाब देने लग गईं हों, कान भी अपने मार्ग से किसी को घुसने न देते हों, घ्राण और जिह्वा की शक्ति भी लुप्त हो गई हो, पंचेन्द्रिय से एकेन्द्रिय में आ गए हों, जहाँ केवल शरीर का आधार ही बचा हो, शीत-उष्ण का स्पर्श ही चेतना का लक्षण प्रकट कर रहा हो, उस अवस्था में भी--आत्मा का वह अविनाशी तत्व अपना एक छत्र साम्राज्य जमाए रहता है। आत्मा पर आवरण आ सकते हैं । रूप और आकृतियाँ बदलती रहती हैं ; किन्तु अस्तित्व नहीं बदलता । चेतना कायम रही है। पोद्गलिक दृश्य जगत संयोगी है, अतः अशाश्वत है, क्षण भंगुर है। चेतना का लोक स्वाभाक्कि है अतः त्रिकाली है, वह शाश्वत सत्य है। परिवर्तनशील होकर भी अपरिवर्तनशील है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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