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गाँधीजी का रामराज्य
रामराज्य की परिकल्पना के सम्बन्ध में चल रही, विचार परिचर्चा को श्री अक्षय जी ने काफी आगे तक बढ़ा दिया है। आज के विषय में जो कहना चाहिए था, वह काफी कुछ कह दिया गया है, अब मैं उस विचार अंक के आगे कोई अंक रखना नहीं चाहता, सिर्फ एक बिन्दु रख देना चाहता हूँ। आप समझते हैं, एक बिन्दु रख देने से संख्या कितनी आगे बढ़ जाती है।
बात यह है, कि रामराज्य' की चर्चा करके हमने एक ऐसा प्रश्न सामने रख दिया है, जिसकी कल्पना अनन्त अतीत के साथ चलती आयी है, वर्तमान में भी चल रही है,
और कह नहीं सकते कब तक चलती रहेगी, पर, उसकी कोई एक ऐकान्तिक परिभाषा आज तक नहीं लिखी जा सकी । न स्वयं प्राचीन ऋषिमुनि लिख पाए, न गाँधीजी ही लिख सके । प्रत्येक युग में उसकी परिभाषाएँ भिन्न-भिन्न होती रही हैं परिस्थितियों के सन्दर्भ में रामराज्य की परिकल्पना भिन्न-भिन्न रूप धारण करती रही है । बदलना, बदलना और फिर बदलना-विश्वचक्र का यही क्रम रहा है, और रहेगा। रामराज्य और स्वराज्य :
मैं समझता हूँ, गाँधीजी के राम राज्य' का अर्थ केवल स्वराज्य नहीं था, अपितु सुराज्य था। रामराज्य का स्वरूप बहुत विराट, बहुत व्यापक है। राम राज्य के माने हैं, भारतीय संस्कृति का उज्ज्वलतम चित्र ! वह पूरे भारत के चिन्तन और गौरव का प्रतीकार्थ है । रामराज्य एक वह स्थिति है-जो अणु से लेकर विराट् तक को परिव्याप्त किए हुए है। उपनिषद् के शब्दों में-"अणोरणीयन् महतो महीयान्" का रूप रामराज्य की कल्पना में छिपा है।
मैंने कहा-रामराज्य का अर्थ स्वराज्य मात्र नहीं है, स्वराज्य तो एक पहली भूमिका है। आज का स्वराज्य तो उस भूमिका से बहुत नीचे हैं । स्वराज्य का अर्थ है, जनता अपने को राज्य से अलग नहीं समझे। शासम-सूत्र के साथ एकत्व की अनुभूति करे,शासन, शासक और शासित तीनों के बीच आत्मीयता की एक कड़ी जुड़ी रहे।
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