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________________ अस्तेय दर्शन /८७ समय के प्रवाह में बहते हुए समाज के जो रिवाज सड़-गल गए हैं, उनके प्रति भी उसे मोह हो गया है। उस सड़े-गले अंग को भी वह अपनी निधि समझ बैठा है। जब कोई चिकित्सक आकर उस सड़े-गले भाग को अलग करना चाहता है, उसकी व्यथा हटाकर उसे नया जीवन देना चाहता है, तो समाज तिलमिला उठता है, वह चिकित्सक को गालियाँ देकर उसका अपमान करता है। उस समय समाज सेवक का क्या कर्तव्य है ? उसे यह नहीं सोचना चाहिए, कि मैं जिसकी भलाई कर रहा हूँ, वही मुझे अपमान का उपहार दे रहा है, तो मैं इन व्यर्थ की झंझटों में क्यों उलझू ? समाज में जागृति और क्रान्ति लानी है तो अपमान की चोंट सहनी पड़ेगी, सम्मान की ओर से पीठ फेर कर चलना होगा और ईसा की भाँति शूली पर चढ़ना होगा, तभी वह समाज का नवनिर्माण कर सकेगा। एक कलाकार लकड़ी या पत्थर का टुकड़ा लेकर अपने अंतस्थल की भावना के अनुरूप शीघ्र ही उसे मूर्त रूप दे सकता है, दीवारों पर चित्र बना सकता है और वस्तुओं में सहज ही सुधार कर सकता है, क्योंकि यह सब वस्तुएँ निर्जीव होने से कर्ता का विरोध नहीं करतीं। पर समाज निर्जीव नहीं है और उसमें पुरानी चीजों के प्रति मोह भी है। जब कोई समाज-सुधारक उसे सुन्दर रूप में बदलना चाहता है, तो समाज काठ की भाँति चुपचाप नहीं बैठेगा, किन्तु डटकर सुधारक का सामना करेगा, विरोध करेगा। डाक्टर जब बच्चे के फोड़े का आपरेशन करता है तो बालक डाक्टर को गालियाँ देता है और रो-पीटकर विरोध में अपनी सारी शक्ति खर्च कर देता है। परन्तु डाक्टर बच्चे पर क्रोध नहीं करता और मुस्कराता हुआ अपना काम करता चला जाता है। बच्चे को जब आराम हो जाता है तो वह अपनी नादानी पर पाश्चाताप करता है। इसी प्रकार समाज की बुराई के मवाद को निकालते समय समाज भी सुधारक को भला-बुरा कहता है, किन्तु सुधारक शांत भाव से उस हलाहल विष को भी अमृत के रूप में ग्रहण करते हुए आगे बढ़ता रहता है। भगवान् महावीर के युग में यज्ञों के नाम पर लाखों पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। उस समय राजा लोग प्रजा पर शासन करते थे और राजाओं पर ब्राह्मणों का शासन था। इस प्रकार समाज की बागडोर ब्राह्मणों के हाथों में थी। भगवान महावीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003418
Book TitleAsteya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages152
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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