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________________ ८९! अपरिग्रह-दर्शन ली। भाग्य चमका और थोड़े ही वर्षों में उसके वारे-न्यारे हो गए । खब पैसा कमाया। एक बार उसके गांव (जन्मभूमि) के लोग गौ-शाला के निमित्त चन्दा करने गए । गायों की हालत उस समय बहुत खराब हो रही थी। गांव के लोगों ने गो-शाला खोलने का विचार किया, परन्तु पैसे के बिना यह काम कैसे हो सकता था ? गांव वाले तो सब वहीं पापड़ बेल रहे थे। उनके पास गौ-शाला बनाने के लिए पैसे कहीं थे ? अतएव गांव वालों ने, दिसावर में जाकर व्यापार करने वाले अपने ग्रामवासियों से रुपया लाने का निश्चय किया। वे कलकत्ते में खेतानजी के पास पहुँचे । कहा - देखिए गांवों में गायों की हालत बद से बदतर हो रही है । अतएव हमने एक गौशाला खोलने का विचार किया है। उसकी व्यवस्था आपको करनी पड़ेगी। हम लोगों में इतनी शक्ति है, नहीं । खेतानजी बोले ...हम यहाँ बैठे-बैठे अपने घर की भी व्यवस्था नहीं कर पाते, तो गौ-शाला की व्यवस्था कैसे करेंगे ? गांव वालों ने कहा-हम तो आपके भरोसे पर ही आए हैं। खेतानजी-- देखो, आप लोग इतनी दूर से मेरे भरोसे आए, तो मैं यही कर सकता है, कि कुछ रकम दे दू। पर व्यवस्था वगैरह तो मझसे कुछ हो नहीं सकेगी। पहले आप लोग उस गद्दी से लिखा लाओ, उसके बाद में लिख दूंगा। कलकत्ते में ही उसी गांव के एक दूसरे सेठ की दूकान और थी। गांव के लोग वहां पहुँचे, तो सेठजी ने कह दिया-पहले उन्हीं से लिखा लाओ । वही बड़ी गद्दी है। बेचारे गांव वालों ने दो-चार बार चक्कर काटे, परन्तु किसी ने भी रकम न चढ़ाई। दोनों ओर से वही उत्तर मिलता था। वे सोचने लगे, ये क्या करेंगे ! वह उस पर और वह उस पर टाल रहा है । गौ-माता के नाम पर थोड़ा बहुत देना है, वह भी नहीं दिया जाता । सब आशा, निराशा हो गई। फिर भी उनके मन में अभी आशा की क्षीण रेखा थी। वे खेतान सेठ के पास आए और कहने लगे--अब आप जो कुछ देना चाहते हों दे दें, हम तो फिरते-फिरते हैरान हो गए। अब आपसे कुछ नहीं कहेंगे। जो कहना था, सब कह दिया है। खेतान जी के मन में अन्तर्जागरण हआ। अरे, यह मेरे भरोसे आए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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