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________________ अपरिग्रह और दान | ५७ जिससे कि हमें भी उसकी स्थिति का ध्यान आ जाए ! और हमारे पूछने पर कहता-क्या करू महाराज ! कुछ खाने को नहीं है। पहले तो हमारे मन में भी दया उपजी कि यह बेचारा कैसा गरीब है ! इसकी हालत कितनी खराब है, कि बुढ़ापे में भी चने चबाने पड़ते हैं ! फटे-पुराने कपड़े पहनने पड़ते हैं ! पर बाद में मालूम हुआ कि इसकी इस दशा का कारण गरीबी नहीं, कंजूसी है। निर्धनता बुरी नहीं, कृपणता बुरी है। थोड़े दिन बाद ही वह बीमार पड़ गया। हवेली की पौली में पड़ रहा । न कुछ दवा ही ली और न कुछ इलाज ही कराया। और वह कभी बेहोश हो जाता और कभी होश में आ जाता। उसके आगे-पीछे भाइयों ने कहा-इन्तजाम करो, इसका अन्तिम समय निकट है । फिर कुछ भाइयों ने सोचा-मरने को तो यह मरेगा और फिर हमारो आफत आ जाएगी ! सरकार कहेगी इसका धन कौन ले गया ? यह सोचकर उन्होंने सरकार को खबर दे दी। खबर पाकर तहसीलदार आया और उसने ताला तोड़ा तो, उसके पास पांच हजार की सम्पत्ति निकली ! कुछ नकद और कुछ जेवर था। लहसीलदार भी चकित रह गया । इतनी सम्पत्ति इक्ट्ठी कर रखी है और हाल यह है । तहसीलदार ने कहा - जितना दान करना हो, कर दो; पीछे जो सम्पत्ति रहेगी, उसका हम इन्तजाम करेंगे। लोगों ने भी प्रेरणा दी- भाई, तुम्हारे आगे-पीछे कोई नहीं है । अन्तिम समय आ पहुँचा है। जो कुछ करना चाहो, कर लो। यह अवसर फिर कभी आने वाला नहीं। __वह चिढ़कर कहने लगा-क्या मुझे आज ही मार डालना चाहते हो ? जिन्दा रहूँगा तो क्या खाऊँगा? ___ लोगों ने कहा-अरे, अभी तक क्या खाया है ? जो अब तक खाते रहे हो, वही आगे खाना। अब तक तो जोड़ते ही जोड़ते रहे हो ! तुमने खाया तो कुछ भी नहीं । तहसीलदार ने एक रुपया अपने पास से उसके हाथ पर संकल्प करने को रख दिया, तो उसने उसे लेकर अंटी में रखने का प्रयत्न किया ! आखिर वह मर गया और सरकार ने उसके धन पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार के संग्रह का लाभ क्या है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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