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________________ ४६ | अपरिग्रह-दर्शन और यही भगवान महावीर का दृष्टिकोण था। उन्होंने अपनी इच्छा से राजमहलों का त्याग किया, और फकीरी बाना धारण कर लिया। भिक्ष का जीवन अंगीकार कर लिया। वस्त्र के नाम पर उन्होंने एक तार भी अपने पास नहीं रखा। और यही महान् और ऐच्छिक गरीबी है। बुद्ध ने भी यही किया। उनको भी वैभव में रहते हुए शान्ति नहीं मिली। जब वे भिक्ष के रूप में आ गए तो शान्ति उनके हृदय में आ विराजी । जनता ने भी उनकी बात को ध्यानपूर्वक सुना-और वह उनके पद चिन्हों पर भी चली। . ___ मगर उपनिषद् काल के महान उपदेशक राजा जनक का वैसा प्रभाव जनता पर न हो सका। उपनिषदों में जनक गूंज तो रहे हैं, और उनकी वाणी भी बड़ी तेजस्वी मालम होती है। उसमें त्याग और वैराग्य की ज्वालाएं जलती हई मालम होती हैं, किन्तु वह ज्वालाएं आती हैं, और बुझ जाती हैं। ज्योति जगती है, और बुझ जाती है। इसका कारण यही है, कि उन्होंने सिंहासन पर बैठकर अद्वैतवाद और परम ब्रह्म की बातें की हैं- एक शक्तिशाली और वैभवसम्पन्न नरेश के रूप में रहकर ही उन्होंने संसार को वैराग्य का उपदेश दिया है, जिससे जनता पर उनके विचारों का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सका है। इस प्रकार भगवान महावीर से पहले भी वेदान्त की बातें कही गयीं -यह संसार क्षणभंगुर है, नश्वर है; मगर वेदान्त के इस सन्देश को देने वाले स्वयं में त्याग की भावना न जगा सके । वे राजा-महाराजाओं के दरबार में पहुँचे और बदले में सोने से मढ़े सींगों वाली हजार-हजार गायें लेकर इस महान सन्देश को देकर चले आए। यही कारण है, जो वे इस महान सन्देश की अमिट छाप के हृदय में न लगा सके। तो यह भी जीवन का कोई आदर्श है ? त्याग और वैराग्य का उपदेश देने चलें और सोने से मढ़े सींगों वाली हजारों गायें ले आएं । जनता के मानस पर उस उपदेश का असर हो ही कैसे सकता था, और हुआ भी नहीं । इसलिए वेदान्त के एक आचार्य को भी कहना पड़ा - कलौ वेदान्तिनो भान्ति, फल्गुने बालका इव । इस कलि-काल में, संसार की वासनाओं में फंसे हुए लोगों के मुंह से वैराग्य-वृत्ति की बातें सुनते हैं, तो फाल्गुन का महीना याद आ जाता है । फाल्गुन में, होली के समय बालक पागल से हो जाते हैं और कभी घोड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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