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________________ ३६ | अपरिग्रह-दर्शन दृष्टिगोचर नहीं हो रही है । जो देश धनी हैं, वे भी अशान्त हैं और जो निर्धन हैं वे भी अशान्त हैं । लूटमार मच रही है । सर्वत्र परेशानी और बेचैनी है । इन सब का मूल कारण परिग्रह है । आज की लड़ाइयों का मूल परिग्रह ही है । परिग्रह के लिए ही यह लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं। किसी समय मान-प्रतिष्ठा के लिए अथवा विवाह-श‍ - शादियों के लिए सारयां होती थीं। किन्तु आज की लड़ाइयों का उद्देश्य यह नहीं है | बहुत बडी प्रतिष्ठा पाने के लिए अथवा चक्रवर्ती बनने के लिए आज युद्ध नहीं होते हैं । इन युद्धों का उद्देश्य मण्डियां तैयार करना है, जिससे कि विजेता राष्ट्र विजित राष्ट्र को माल देता रहे और लूटता रहे। आज व्यापार के प्रसार के लिए युद्ध होते हैं । इस प्रकार व्यापार के लिए ही युद्ध प्रारम्भ किये जाते हैं, और लड़े जाते हैं, और व्यापार के लिए ही समाप्त भी किये जाते हैं। गहरा विचार करने पर यही एक मात्र आज के युद्धों का उद्देश्य समझ में आता है । विश्व में धन की पूजा हो रही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है, कि आज विश्व में जो भी अशांति है, उसका प्रधान कारण परिग्रह है । परिग्रह के मोह ने एक राष्ट्र को, दूसरे राष्ट्र को चूसने और पददलित करने के लिए ही प्रेरित नहीं किया है, वरन् एक ही राष्ट्र के अन्दर भी वर्ग युद्धों को आग सुलगाई है। पूंजीपतियों और मजदूरों के बीच जो संघर्ष चल रहा है और जो दिनों-दिन भयानक बनता जा रहा है, और जिसके विस्फोटक परिणाम बहुत दूर नहीं हैं, उसका कारण क्या है ? परिग्रह के प्रति जो अतिलालसा है, और जिस अतिलालसा के कारण, एक वर्ग दूसरे वर्ग की आवश्यकताओं की उपेक्षा करके अपनी ही तिजोरियां भरने की कोशिश करता है, उसी ने वर्ग संघर्ष को जन्म दिया है । उसका अन्त कहाँ है ? अभिप्राय यह है, कि जब तक परिग्रह की वृत्ति अन्दर में कम नहीं हो जाती, तब तक संसार की अशान्ति कदापि दूर नहीं हो सकती । जब तक प्रत्येक राष्ट्र परिग्रह - परिमाण की नीति को नहीं अपनाएगा, तब तक खून की होली खेलता ही रहेगा । भगवान् महावीर ने और दूसरे महापुरुषों ने किसो समय सच ही कहा था, कि परिग्रह ही अशान्ति का मूल है, और अपरिग्रह ही शान्ति का मूल है। कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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