________________
तृष्णा की आग
उपासक आनन्द ने परिग्रह-परिमाण व्रत को अंगीकार किया। परिग्रह-परिमाण व्रत को अंगीकार करने का अर्थ है-जो जीवन अमर्यादित है, जिसमें इच्छाओं का कहीं अन्त नहीं है, जो कुछ भी मिल सके उसे लेना ही जिस जीवन का उद्देश्य है, उस जीवन को समेट लेना, मर्यादा के भीतर ले लेना और इच्छाओं के प्रसार को रोकने के लिए एक दीवार खड़ी कर लेना।
___ आम तौर पर मनुष्य अपने जीवन को अपनी इच्छाओं के वशीभूत करके उसे बेहद लम्बा बना लेता है। वह अपनी इच्छाओं के पीछे-पीछे दौड़ता है-~-उनकी तृप्ति के लिए, परन्तु इच्छाएँ परछाईं की तरह आगेआगे बढ़ती हैं, दिन दूनी और रात चौगुनी! एक इच्छा तप्त हुई नहीं कि दस नवीन इच्छाएँ पैदा हो गयीं।
बस, इसी मनोवृत्ति के मूल में समस्त संघर्ष निहित हैं। आज समाज में, परिवार में और राष्ट्र में जो हाहाकार चारों ओर सुनाई पड़ता है, वास्तव में, उसकी जननी यह लोभ की वत्ति ही है। जब तक लोभ की वृत्ति को दूर नहीं किया जायगा, वासना पर अंकुश नहीं रखा जायगा, इच्छाओं को कुचलने की शक्ति नहीं उत्पन्न होगी और इस रूप में परिग्रहपरिमाण व्रत का आचरण नहीं किया जायगा, तब तक आज के संघर्षों के मिटने की कल्पना करना निरा सपना देखना ही है । संघर्षों के मूल को पहचाने बिना संघर्षों को दूर करने की कल्पना, कल्पना ही रह जाएगी। समस्त संघर्षों का मूल है, तृष्णा।
ऊँचे से ऊँचे विचारकों ने ज्ञान की रोशनी दी, मगर लोभ का अन्धकार दूर नहीं हो सका, और आज का संसार उसी अन्धकार में भटक रहा है । कहने को तो मनुष्य ने विद्युत शक्ति पर भी अधिकार जमा लिया और उसके प्रकाश से दुनिया जगमगा उठी, परन्तु इस बाहरी प्रकाश ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org