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________________ १२ | अपरिग्रह-दर्शन समुद्र में चलने वाली नौका पानी का परित्याग नहीं कर सकती। सागर को पार करने के लिए पानी का रहना आवश्यक है। उसके नीचे अनन्त जल-कण प्रवहमान रहते हैं। फिर भी उसे तब तक कोई खतरा नहीं रहता, जब तक जल का अनन्त प्रवाह उसके नीचे दबा है। परन्तु यदि जल की कुछ लहरें, पानी का थोड़ा-सा प्रवाह उसमें भर जाए तो नौका के लिए खतरा हो जाएगा। यही स्थिति जीवन की है। भले ही, मारे संसार की संपत्ति मनुष्य के चरण चूम रही हो, परन्तु यदि उसके मन में, विचारों में, जीवन में आसक्ति का, इच्छा का ममता-मूर्छा का प्रवाह नहीं बह रहा है। तो उसके जीवन के लिए कोई खतरा नहीं है, कोई भय नहीं है। सम्पत्ति का वह महाप्रवाह उसके अपरिग्रह की ओर बढ़ने वाले कदमों को रोक नहीं सकता। अतः धन-सम्पत्ति परिग्रह एवं पाप नहीं, पाप का, परिग्रह का निमित्त बन सकती है । यथार्थ में आसक्ति ही परिग्रह है, आसक्ति ही पाप है और आसक्ति ही संसार परिभ्रमण का कारण है। भले ही, वह आसक्ति -धन की हो, पदार्थों की हो, राज्य की हो, पार्टियों की हो, सम्प्रदायों की हो, साम्प्रदायिक आग्रहों एवं विचारों को हो, साम्प्रदायिक व्यामोह की हो, शिष्य-शिष्याओं की हो या और किसी तरह की हो सब परिग्रह है, जीवन के लिये बोझ है, भार है, जीवन-नौका को संसार-सागर में डुबाने वाली है। अनासक्ति की साधना ही अपरिग्रह की साधना है। अपरिग्रह की ओर कदम बढ़ाने के लिये सबसे पहलो शर्त धन-सम्पत्ति के त्याग की नहीं, आसक्ति के त्याग की है। इच्छाओं, आकांक्षाओं पर काबू पाने वाला व्यक्ति ही अपरिग्रह के पथ पर चल सकता है। उसके लिये यह प्रतिबन्ध नहीं है कि वह वस्तु का उपयोग ही न करे। परन्तु वह अपने जीवन में सदा यह विवेक रखे कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का उपयोग न करे। मान लो, वर्ष में दो सूट पर्याप्त हैं, फिर भी अपनी आकांक्षा की भूख को मिटाने के लिये विभिन्न रंग एवं डिजायन के अनेक सूट इकट्ठे कर रखे हैं और किये जा रहे हैं, तो यह अनावश्यक संग्रह परिग्रह है, पाप है। वस्त्रपात्र तथा रहन-सहन एवं खान-पान के साधन जीवन के लिये आवश्यक हैं। परन्तु इतना संग्रह न हो, कि वह आवश्यकता की अक्षांश रेखा को ही उल्लंघ जाये। एक ओर आपकी पेटियों में बन्द पड़े वस्त्र दीमकों की खाद्यसामग्री बन रहे हों और दूसरी ओर उनके अभाव के कारण अनेक व्यक्ति सर्दी में ठिठुर रहे हों। एक ओर आप आवश्यकता से अधिक खा-खाकर अजीर्ण एवं अन्य रोगों से पीड़ित हो रहे हों और दूसरी ओर अन्नाभाव से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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