SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का संगीत : अहिंसा | १६५ जानकर फिर अन्न-जल ग्रहण करना, कितना उग्र नियम है। परन्तु वैशाली पर कुणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भगवान ने जरा भी समर्थन नहीं किया; प्रत्युत नरक का अधिकारी बताकर उसके पाप कर्मों का भण्डाफोड़ कर दिया। अजातशत्र इस पर रुष्ट भी हो जाता है, किन्तु भगवान महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला पूर्ण अहिंसा के अवतार रोमांचकारी नर-संहार का समर्थन कैसे कर सकते थे? जीओ और जीने दो: जैन तीर्थंकरों की तथाकथित अहिंसा का भाव आज की मान्यता के अनुसार निष्क्रियता का रूप भो न था। वे अहिंसा का अर्थ-प्रेम, परोपकार, विश्वबन्धुत्व करते थे । स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो, जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित न था। उनका आदर्श था -- "दूसरों के जीने में मदद भी करो, और अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो।" वे उस जीवन, को कोई महत्व न देते थे, जो जन-सेवा के मार्ग में सर्वथा दूर रहकर एकमात्र भक्तिवाद के अर्थ शून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझा रहता हो। भगवान महावीर ने तो एक बार यहाँ तक कहा था, कि मेरी सेवा करने की अपक्षा दीन-दुखियों की सेवा करना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। वे मेरे भक्त नहीं, जो मेरी भक्ति करते हैं, माला फेरते हैं। मेरे सच्चे भक्त तो वे हैं, जो आज्ञा का पालन करते हैं। मेरो माज्ञा है - "प्राणिमात्र को सुख, सुविधा और आराम पहुँचाना ।' भगवान महावीर का यह महान ज्योतिर्मय सन्देश आज भी हमारी आँखों के सामने है, यदि हम थोड़ा-बहत सत्प्रयत्न करना चाहें, ता ऊपर के सन्देश का सूक्ष्म बीज यदि हममें से कोई देखना चाहे, तो उतराव्यपन सू को सायं-सिद्धि वृति' में देख सकता है। अमृतमय सन्देश : ___ अहिंसा के अग्रगण्य सन्देशवाहक भगवान महावीर है । आज दिन तक उन्हीं के अमर सन्देशों का गौरव-गान गाया जा रहा है। आपको मालूम है, कि आज से ढाई हजार वर्ष पहले का समय: भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक महान अन्धकारपूण युग माना जाता है । देवी-देवताओं के आगे पशु बलि के ना : पर रक्त को नदियाँ बहाई जाती थीं, मांसाहार और सुरापान का दौर चलता था। अस्पृश्यता के नाम पर करोड़ों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy