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________________ आत्मा का संगीत : अहिंसा | १९३ वास्तव में जो कुछ भी ऊपर का दुःख है,वह मनुष्य पर मनुष्य के द्वारा ही लादा हुआ है। यदि हर एक व्यक्ति अपनी ओर से दूसरों पर किए जाने वाले दुःखों का हटा ले, तो यह संसार आज हो नरक से स्वर्ग में बदल सकता है। अमर आदर्श: जैन-संस्कृति के महान संस्कारक अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है। उनका आदर्श है, कि धर्म-प्रचार के द्वारा ही विश्व भर के प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह अँचा दो कि वह 'स्व' में हो सन्तुष्ट रहे, 'पर' की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे। पर को ओर आकृष्ट होने का अर्थ है- दूसरों के सुख-साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना। हाँ, तो जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है, तब तक उससे संसार को लाभ हो लाभ है, हानि कुछ भी नहीं। ज्यों ही वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास के प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ का रूप धारण करती है, तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य खड़ा हो जाता है। यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सब के सब मनष्य अपने-अपने 'स्व' में ही प्रवाहित रहते हैं, तब तक कुछ अशान्ति नहीं है, लड़ाई झगड़ा नहीं है । अशान्त और संघर्ष का वातावरण वहीं पंदा होता है, जहां कि मनुष्य 'स्व' से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के जीवन उपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है । प्राचीन जैन-साहित्य उठाकर आप देख सकते हैं, कि भगवान महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुल्य प्रयत्न किए हैं। वे अपने प्रत्येक गृहस्थ शिष्य को पाँचवं अपरिग्रह व्रत की मर्यादा में सर्वदा 'स्व' में ही सोमित रहने की शिक्षा देते हैं । व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने न्याय-प्राप्त अधिकारों से कभी भी आगे नहीं बढ़ने दिया, प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है - अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना। जैन-संस्कृति का अमर आदर्श है. कि - प्रत्येक मनष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए हो, उचित साधनों का सहारा लेकर, उचित प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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