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________________ वस्तु परिग्रह नहीं । १८५ ग्रह से पूर्णतः मुक्त हो । पूर्णतः नग्न रहने वाला साधु भी परिग्रह से मुक्त नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वह भो शय्या-तख्त, घास-फूस आदि स्वीकार करता है, शौच के लिए कमण्डल रखता है, जीव-रक्षा के लिए मोरपिच्छी रखता है, पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए ग्रन्थ ग्रहण करता है। इसके अतिरिक्त शरीर तो उसने धारण कर ही रखा है, और वह प्रतिसमय कर्मों को भी ग्रहण करता है। अतः यदि वस्तु ग्रहण करना परिग्रह का अर्थ माना जाए, तो दुनिया में कोई भी व्यक्ति अपरिग्रह व्रत की साधना नहीं कर सकेगा। मनुष्य जब तक संसार में रहता है, तब तक वह आवश्यकताओं से घिरा रहता है । आध्यात्मिक साधना में सलग्न व्यक्ति को भी अपने शरीर को स्वस्थ एवं गतिशील रखने तथा आत्मा का विकास करने के लिए कुछ साधनों की आवश्यकता रहती ही है। ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता, कि शरीर के रहते हुए उसे किसी भी वस्तु की आवश्यकता न हो। यह बात अलग है, कि व्यक्ति आवश्यकता को कामना का,इच्छा का रूप दे दे। आवश्यकता की पूर्ति तो हो सकती है, परन्तु कामना, इच्छा एवं आकांक्षा की पूर्ति होना कठिन है। इच्छाओं का जाल इतना उलझा हुआ है, कि एक उलझन के सुलझते हो दूसरी उलझन सामने आ जाती है। उसका कभी भी अन्त नहीं हाता । अतः हमें यह समझ लेना चाहिए, कि आवश्यकता और चीज है, और इच्छा, आसक्ति एवं आकांक्षा कुछ और चीज है। आज लोगों में परिग्रह को लेकर जो संघर्ष, वाद-विवाद चल रहा है, वह इच्छा और आवश्यकता के बीच के अन्तर को सम्यक रूप से न समझने के कारण उत्पन्न हुआ है। यह नितान्त सत्य है, कि जैन-धर्म आदर्शवादी है, निवृत्ति-प्रधान है। वह साधक को निवृत्ति की ओर बढ़ने को प्रेरणा देता है । परन्तु, वह कोरा आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी भो है। कोरा आदर्श केवल कल्पना के आकाश में उड़ानें भरता रहता है। केवल कल्पना के आकाश में राकेट से भो तीव्र गति से उड़ने वाले की अपेक्षा, धरती पर मथर-गति से चलने वाला अच्छा है। कम-से-कम वह रास्ता तो तय करता है। जैन-धर्म का आदर्श केवल कल्पना का आदर्शवाद नहीं है। वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी समन्वय करता है। वह निवत्ति के साथ प्रवृत्ति को भी स्वीकार करता है। वह साधक के लिए आवश्यकताओं को पूरा करना परिग्रह नहीं मानता। वह आवश्यकता से नहीं, इच्छा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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