SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इच्छाओं का वर्गीकरण | १७७ . त्याग करते हैं, परलोक में सुख भोगने की प्रबल आकांक्षाओं से पीड़ित रहते हैं । त्याग की यह विचित्र स्थिति सुलझाए नहीं सुलझ रही है। यहाँ उपवास में पानी तक का त्याग करते हैं, और लगता है, जैसे पिपासा पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली, परन्तु अन्तर में मन स्वर्ग-सुखों की मादक मदिरा पीने को लालायित रहता है । साधक परस्त्री का त्याग कर देता है, यहाँ तक कि अपनी स्त्री का भी त्याग कर ब्रह्मचर्य की साधना में लग जाता है, किन्तु अन्दर में मन स्वर्ग की अप्सराओं के पीछे चक्कर काटता रहता है। यह तो ऐसा हआ, कि वर्तमान में जो ब्रह्मचर्य पाला जाता है, उसका उद्देश्य भविष्य में यहां से भी वहाँ व्यभिचार की प्रबल आकांक्षा है । स्पष्ट है, कि इस प्रकार का वैराग्य,वास्तव में वैराग्य नहीं है । यह तो एक प्रकार का सट्टा (जआ) हआ। स्वर्ग के मोहक ऐश्वर्य और सुन्दर अप्सराओं की प्राप्ति के लिए यहाँ का यथोक्त दान और ब्रह्मचर्य सट्टेबाजी ही तो है। यह तो वासना के लिए वासना का त्याग हआ। भोग के लिए भोग का त्याग हआ। विचारने की बात तो यह है कि यह त्याग है या और कुछ है ? स्थिति में अन्तर इतना ही है, कि कुछ लोग वर्तमान संसार की भोग-वासनाओं के गलाम होते हैं, तो कुछ लोग परलोक की भोग-वासनाओं के । चाहे हम इस लोक के खटे से बँधे रहें, चाहे परलोक के खटे से, दोनों ही स्थितियों में आत्मा तो बंधी ही रहेगी। त्याग बन्धन-मुक्ति के लिए है। और इस तरह के त्याग में बन्धन-मुक्ति कहाँ है ? यहाँ का खंटा तो उखाड़ फेंकना सहज है, उसमें कुछ प्रशंसा आदि का प्रलोभन भी दीखता है, किन्तु परलोक का खटा उखाड़ना बहुत कठिन है। यह उन लोगों की स्थिति है, जो इच्छाओं के दास हैं, और जो इच्छाओं के दास हैं, वे समस्त संसार के दास हैं। मन के स्वामी : उक्त स्थिति के विपरीत जो लोग इच्छाओं के स्वामी हैं, इच्छा जिनकी दासी है, अनुवतिनी है जो मन की तरंगों में नहीं बहते. बल्कि मन जिनके संकेतों पर चलता है, जो इच्छाओं को जब भी, जैसा भी चाहें मोड़ दे सकते हैं. वे इच्छाओं के स्वामी हैं, और वे ही समस्त संसार के स्वामी हैं। उन्हें ही भारतीय दर्शन जगदीश्वर कहता है, जगन्नाथ कहता है। आचार्य शंकर ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा है-जिसने मन को जीत लिया, उसने समूचे संसार को जीत लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy